मन की बात कहना अलग और सुनना अलग बात है

एक तुर्की कहावत है ‘यदि कहना/बोलना चाँदी है, तो सुनना सोना है’। कई लोग कई संचार माध्यम का उपयोग कर अपनी मन की बात व्यक्त करते हैं। लेकिन मन की बात कहना व सुनना दोनों अलग आयाम हैं, यहाँ समानुभूति का अभाव होता है। समानुभूति यानी जब ‘मैं’ नदी, चिड़िया, बच्चा या वह हो जाऊँ!  जिसपर संवाद हो। क्योंकि इनमें बस उतना ही अंतर है – जितना एक घर जल कर ख़ाक हो गया और मेरा घर जल कर ख़ाक हो गया, में अंतर है। 

उदाहरण के तौर पर हम इसे दो घटनाओं से समझ सकते हैं -पहली मोदी जी के मन की बात कार्यक्रम को ले सकते हैं, क्योंकि उनकी कथनी व् करनी में उतना ही अंतर होता है जितना एक घर और मेरे घर में अंतर है। ….आप कभी प्रचारकों को सुना किजिये …खास कर जब किसी विषय पर उन्हें बोलने का मौका मिलता है तो … बिना जमीन के कैसी जमीन बनायी जाती है ये प्रचारक बख़ूबी जानते हैं। इसलिए मोदी जी तो पहले प्रचारक है  बाद में पीएम।

दूसरी उदाहरण हम झारखण्ड के हेमंत सत्ता का ले सकते हैं -जिन्होंने ने चुनाव में अपनी मन की बात में, खुद को जनता के लिए परिभाषित करते हुए नयी सुबह का आगाज किया था। सत्ता में आने के बाद उन्हें अपने किये वायदे को जमीनी हक़ीक़त देने के लिए प्रयासरत देखा जा सकता है। यही नहीं सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्मों पर जनता द्वारा किये जाने वाले मन की बात को, “एक घर नहीं बल्कि मेरा घर” समझ कर निदान करते देखे जा रहे हैं -जिसकी गवाही राज्य के तमाम मीडिया देती दिखती है।  

मसलन, मोदी सत्ता के मन की बात में भारत के संविधान के प्रति समानुभूति का भाव गौण है, जबकि हेमंत सत्ता में समानुभूति का भाव सर्वोपरि है। जब कथन में समानुभूति का तत्व क्षीण होता है तब व्यक्ति किसी भी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए आतंक का सहारा लेता है। क्योंकि तब वह पीड़ा को महसूस करने की क्षमता खो चूका होता है। वहीं जब समानुभूति भाव का समवेश होता है तो सामाजिक-आर्थिक बदलाव, पारिस्थितिकी संतुलन या फिर शांति जैसे हर लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है!

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