सोबरन मांझी व दिशोम गुरु शिबू सोरेन का छाप देखने को मिलता है हेमंत में

सोबरन मांझी महाजनी प्रथा के खिलाफ जलाये शिक्षा की ज्योत जगाये

झारखंड में सत्ता परिवर्तन ने साबित किया कि कोई भी व्यवस्था सनातन नहीं होती। शोषित समाज अपने हक़ अधिकार के लिये उठता है और उस पर विजय पाकर ही दम लेता है। इसका जीता जागता उदाहरण झारखंड के 11 वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले हेमंत सोरेन हैं। 

अबुआ दिशुम अबुआ राज के इस आन्दोलन में हेमंत सोरेन में दिशोम गुरु शिबू सोरेन व उनके दादा सोबरन मांझी की छाप देखने को मिलती है। सोबरन मांझी ने शिक्षा की ज्योत जला महाजनी प्रथा के खिलाफ एक किरण दिखायी, तो दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने आन्दोलन कर अलग झारखंड के लिये लड़ाई लड़ी।

उन्हीं के पद चिन्हों पर चल हेमंत सोरेन ने अपनी रणनीति से उसी झारखंड में अबुआ दिशुम अबुआ राज का सपना पूरा किया। एक स्वस्थ जीत हासिल करने बाद हेमंत सोरेन के चेहरे पर गुरूजी जी के भांति ख़ुशी से ज्यादा ज़िम्मेदारी का एहसास देखने को मिल रहा है। 

हेमंत सोरेन में उनके दादा व उनके पिता की छाप या संस्कार होने के विश्वास को तब और प्रबल कर देता है जब वह अपने चाहने वालों को कहते हैं कि उन्हें भेंट स्वरुप “बुके नहीं बुक दे”। चूँकि मुख्यमंत्री जी के दादा एक शिक्षक थे और उनके पिता श्री शिबू सोरेन शिक्षा के अलख जलाने में अपनी सारी हडियाँ गला दी, ऐसे में हेमंत सोरेन में शिक्षा और किताबों के प्रति प्रेम होना कोई अचरज की बात नहीं हो सकती। 

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जी का ट्वीट कर झारखंडी आवाम को यह सन्देश देना कि उन्हें भेंट की गयी किताबें नव वर्ष में उनका ज्ञानवर्द्धन करेंगे, और लाइब्रेरी के रूप में यहाँ के बच्चों के काम आयेंगी – जरूर साबित करता है कि अब झारखंड की दूरी शिक्षा से अधिक नहीं हो सकती।  

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