पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना दिखाने वाली सत्ता में देश यदि ऑक्सीजन, दवा, बेड की कमी में दम तोड़े, तो कैसे वह सत्ता 7वीं वर्षगाँठ मनाएगी

आप जैसे चाहें समझे लेकिन इस सत्ता की 7वीं वर्षगाँठ मासूमों के खून से सनी है. मुनाफ़ाख़ोर रक्तपिपासु व्यवस्था व नरभक्षी फ़ासिस्ट सरकार की नीतियों ने महज ऑक्सीजन की कमी में लाखों जीवन लील लिया.

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने देश में तांडव मचाया. विश्वगुरु भारत में लाखों लोगों ने ऑक्सीजन, दवा, बेड की कमी में दम तोड़ दिए. ढपोरशंखी पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था जैसे सपने व आंकड़ों के बीच चिकित्सा व्यवस्था की लचर हालात की सच्चाई प्राकृतिक ने स्वयं जनता के समक्ष ला दी. देश में कोविड से होने वाली मौतों का सरकारी आँकड़ा 2,38,270 पार कर चुका है. लेकिन इंटरनेशनल मिडिया व देश की जनता सरकारी आंकड़े को सिरे से ख़ारिज कर रही है. क्योंकि जिस देश में सत्ता जलते शवों को पर्दादारी कर छुपाये. वहां कोरोना से होने वाली मौतों के आँकड़े कहीं अधिक हो सकते हैं. ज्ञात हो, इन मौतों में एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जिन्हें समय पर ऑक्सीजन, दवाई, बेड नहीं मिल सका.

मेडिकल ऑक्सीजन की कमी से उत्पन्न भयावह हालात का सबसे विकराल रूप राजधानी दिल्ली में दिखा. जहाँ ऑक्सीजन की आपूर्ति न होने से सैकड़ो लोगों की असमय मृत्यु आज सच के रूप में हमारे सामने है. सर गंगाराम जैसे निजी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से 25 लोगों ने दम तोड़ दिया. बत्रा, जयपुर गोल्डन अस्पताल की भी यही स्थिति रही. देश के अन्य राज्यों में भी स्थिति कमोवेश यही बनी रही. उत्तर प्रदेश की त्रासदी का अन्दाज़ा उन तस्वीरों से लगाया जा सकता है. जहाँ लोग सड़कों पर लाशों को जलाने को मजबूर हुए.

कुम्भ व चुनावी रैली के नाम पर महामारी को स्वयं केन्द्रीय सत्ता दिया न्योता

ऐसे हालात होने की चेतावनी केंद्र को पिछले एक साल से डॉक्टर और कोविड माहिर दे रहे थे. लेकिन, केंद्र सरकार समय रहते चेतने के बजाय कभी कुम्भ तो चुनावी रैली के नाम पर महामारी को स्वयं न्योता दिया. और चुनाव की आपा-धापी में देश को झूठ बोल स्वस्थ किया कि देश ने कोरोना पर विजय प्राप्त कर लिया है. लेकिन, न खुद केंद्र ने कोई पुख़्ता इन्तज़ाम किया और न ही राज्यों को करने दिया. नतीजतन, ऑक्सीजन, दवा-इलाज, बेड की कमी व आर्थिक तंगी के बीच मौत का खेल कोरोना ने शहर-मोहल्ले, गाँव-दर गांव खेला. ख़स्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था की वजह से गयी जानों को मौत कहना ग़लत होगा. ये तो नरसंहार था. 

मुनाफ़ाख़ोर रक्तपिपासु व्यवस्था व नरभक्षी फ़ासिस्ट केन्द्रीय सत्ता की नीतियों ने लाखों जीवन लील लिया

जानें बचायी जा सकती थीं लेकिन मुनाफ़ाख़ोर रक्तपिपासु व्यवस्था व नरभक्षी फ़ासिस्ट सरकार की नीतियों ने लाखों का जीवन को लील लिया. ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल हो सकता है कि क्या ऑक्सीजन, दवा, बेड, क्वारण्टाइन सेण्टर्स का इन्तज़ाम करने के लिए एक साल का वक़्त कम था? सेन्ट्रल विस्टा जैसे फिजूल योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया. लेकिन ऑक्सीजन आपूर्ति को लेकर प्लांट लगाने में वही इच्छाशक्ति संजीदगी के साथ उस सत्ता में क्यों नहीं दिखी?

सीधा जवाब यह हो सकता है कि केंद्र के हुक्मरानों की प्राथमिकता में आम लोगों की ज़िन्दगी थी ही नहीं, बल्कि उसकी प्राथमिकता में बंगाल चुनाव की जीत, कुम्भ का आयोजन, देश की संस्थानों को बेचना, सेण्ट्रल विस्टा बनवाना व अपने कॉर्पोरेट मित्रों को खुश करना था. ज्ञात हो कोविड महामारी से पहले भारत को हर दिन 700 मेट्रिक टन लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ती थी. कोविड की पहली लहर, सितम्बर 2020 में, जब एक लाख केस प्रतिदिन दर्ज हो रहे थे. तब ऑक्सीजन की ज़रूरत बढ़कर 2800 मीट्रिक टन पहुँच गयी थी. और मौजूदा दौर में जब संक्रमित मामलों की संख्या (अप्रैल ’21 तक) तीन गुना अधिक बढ़ी. और 1 मई को यह आँकड़ा 4 लाख पर कर गया. तो ऑक्सीजन की ज़रूरत भी बढ़कर 8400 मेट्रिक टन हो गयी. 

एआईआईजीएमए के अध्यक्ष साकेत टिक्कू के ऑक्सीजन संकट पर वक्तव्य 

अखिल भारतीय औद्योगिक गैस निर्माता संघ (एआईआईजीएमए) के अध्यक्ष साकेत टिक्कू ने बताया कि “राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली व उत्तर-पश्चिम भारत में ऑक्सीजन की किल्लत की मुख्य वजह यहाँ ऑक्सीजन का उत्पादन न होना है. ओडिशा या झारखण्ड जैसे पूर्वी राज्यों से ऑक्सीजन को दिल्ली तक पहुँचने में तक़रीबन 1,500 किलोमीटर तक का सफ़र तय करना पड़ता है. और लिक्विड या तरल ऑक्सीजन को क्रायोजेनिक कण्टेनर में ही ले जाया जा सकता है, जिसकी उपलब्धता भी सिमित थी. सरकार ने चेतावनी के बावजूद इस ओर ध्यान नहीं दिया. मसलन, ऑक्सीजन संकट हमारे सामने आ खड़ी हुई . 

आज झारखंड जैसे राज्यों की इच्छाशक्ति के बदौलत उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 8500 से 9000 टन प्रतिदिन तक लाया जा चुका है. लेकिन ऑक्सीजन की माँग अब भी इससे अधिक है. और ऑक्सीजन की बढ़ती माँग की पूर्ति के लिए हमारे पास पूरे एक साल का वक़्त था! केन्द्र ने न इस ओर ध्यान दिया और न ही चुनौतीपूर्ण स्थिति से निपटने के लिए अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई के लिए ज़रूरी बुनियादी ढाँचे के निर्माण पर ही ध्यान दिया. इस त्रासदी में स्वास्थ्य मंत्रालय की जवाबदेही निश्चित रूप से तय होनी चाहिए.

देश को सेण्ट्रल विस्टा नहीं बल्कि ऑक्सीजन प्लाण्ट, डॉक्टर-नर्स व क्वारण्टाइन सेण्टर की जरुरत थी

बहरहाल, इस वक़्त लोगों को हज़ारों करोड़ वाले सेण्ट्रल विस्टा की ज़रूरत नहीं थी बल्कि ऑक्सीजन प्लाण्ट, डॉक्टर-नर्स की भर्ती, क्वारण्टाइन सेण्टर की जरुरत थी. कितने ही लोग अस्पताल में जगह न मिलने की वजह से सड़कों पर दम तोड़ दिए. समय रहते झारखंड सरकार की नीतियों की तरह अगर ख़ाली पड़े इमारतों, होटलों, स्टेडियम में बेड व चिकित्सा सुविधा का इन्तज़ाम किया जाता तो हम इस भयावह परिस्थिति के साक्षी होने से बच जाते. लेकिन आम जनता की चिंता से परे अपने लिए आरामगाह बनाने वाली हत्यारी सत्ता से उम्मीद करना मूर्खता होगी. 

कफ़न तक में घोटाला करने वाली फासिस्ट सरकार के नेता-मंत्रियों ने इस महामारी के वक़्त जीवनरक्षक दवाइयों की कालाबाज़ारी तक करने से नहीं चूके. गौतम गम्भीर जहाँ दिल्ली स्थित अपने आवास पर रेमिडिसिवर को ऊँचे दामों पर बेचने में व्यस्त थे, वहीं बिहार में भाजपा के सांसद राजीव प्रताप रूडी के घर के आगे 60 एम्बुलेंस बरामद किया जाना किस मानसिकता को दर्शाता है. लोगों की लाशों पर खड़ा हो पैसा कमाने और राजनीति करने में व्यस्त इस हत्यारी विचारधारा ने आम जनता को मरने पर मजबूर किया है.

मोदी सत्ता में जीडीपी का मात्र 1.28% ही स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च किया गया 

फ़ासीवादी भाजपा सरकार ने स्वास्थ्य पर होने वाले ख़र्च को लगातार कम किया. मालूम हो कि मोदी सत्ता में स्वास्थ्य व्यवस्था के खस्ताहाल का मुख्य कारण जीडीपी का मात्र 1.28% ही स्वास्थ क्षेत्र में ख़र्च करना है. देश में तक़रीबन 12,500 मरीज़ों पर केवल 1 डॉक्टर उपलब्ध है मगर फिर भी हमें सेन्ट्रल विस्टा व मूर्तियों की ज़रूरत है! स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर पहले ही आम लोगों से इस सत्ता ने स्वास्थ्य का अधिकार छीन लिया है. कई देशों ने इस महामारी से लोगों की जीवनरक्षा के लिए तमाम प्राइवेट अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें सरकारी नियंत्रण में ले लिया. और समान इलाज की व्यवस्था की. लेकिन, भारत की मोदी सत्ता की कहानी ही जुदा रही. 

देश की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था को सरकारी नियंत्रण में लाकर सभी के लिए निःशुल्क और एक समान दवा-इलाज की व्यवस्था कर, स्थिति को संभाला जा सकता था. अभी भी सरकार कोरोना वैक्सीन को पेटेण्ट मुक्त कर और युद्धस्तर पर इसका उत्पादन कर प्रत्येक नागरिक तक टीका पहुँचा सकती है. क्योंकि स्वास्थ्य के अधिकार पर हमला हमारे जीने के अधिकार पर हमला है. लोगों की मौत का कारण बनी यह आदमख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था और हत्यारी फ़ासीवादी सरकार हमें ये अधिकार भी नहीं दे सकती. क्योंकि इनके लिए पूंजीपति दोस्त जनता के जीवन से अधिक मायने रखते हैं. ऐसे में आप जैसे चाहें समझे लेकिन इस सत्ता की 7वीं वर्षगाँठ मासूमों के खून से सनी ही मानी जा सकती है.

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