बीते बरस के अंत में जनता ने सौ वाट की रौशनी वाली बल्ब को फ्यूज करते हुए झारखंड में जीरो वाट के बल्बों को जगमगाने का मौका दिया। तो नये बरस में बीतते शर्द के बीच नवनिर्वाचित सरकार ने भी प्रमंडलीय वार मंत्रिमंडल का विस्तार कर संतुलित बिसात बिछाने की पहल कर दी है। और दिन के धूप में बदन गर्म करते वक्त ही पिछली सिय़ासत के घाव से बैचेन जनता को राहत देने का प्रयास किया।
बीते बरसों में झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष ने जिस तरह एक क्षत्रप हो अंतर्विरोधों का दरकिनार करते हुए निरंकुश सत्ता को हराने के लिये, कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय विपक्ष को समेट राज्य के साथ खड़े हुए, सभी को चौंका दिया। लेकिन जनता के बीच आख़िरी सवाल यही है कि क्या यह बिसात लहूलुहान पड़े झारखंडी अस्मिता को स्वस्थ बनाने की ताकत रखती है।
इस सवाल का जवाब देने का दावा तो कई नेता व बुद्धिजीवी कर सकते हैं, लेकिन सच तो यह है कि हेमंत सोरेन ने झामुमो को उस राजनीतिक डर से मुक्त कर दिया जहाँ सत्ता ना मिल पाने की स्थिति में, कोई नेता पार्टी तोड़ किसी दल से जा शामिल होते थे। धीरे धीरे इन्होंने उस झामुमो को सोशलिस्ट पार्टी की तर्ज पर ऐसा मथे जहाँ काम करने वालों को लोकप्रियता व पद मिलने की परंपरा का उदय हुआ।
उदाहरण के तौर पर, कौन कह सकता था कि पार्टी में दिग्गजों के होते हुए मिथिलेश ठाकुर व जगरनाथ महतो जैसे नए चेहरे को मंत्रिमंडल में जगह मिलेगा। और पलामू व गिरिडीह जैसे वर्षों सूखे जिलों को ओस के बूंद की प्राप्ति होगी। यानी बहुमुखी झारखंड के अलग अलग मुद्दों को समाधान का दिशा दिखाते हुए झामुमो के स्वर्णिम अतीत के छतरी तले वर्तमान और भविष्य को जोड़ दिखाया।
मसलन, यह पहली बार होगा जहाँ चुनाव परिणाम सरकार व मंत्रिमंडल को राजनीति से ज्यादा राज्य के इकनामिक मॉडल पर असर डालने का चुनौती देती है। क्योंकि झामुमो ने अपने घोषणापत्र मे जिन मुद्दों को उठाया था, उसे लागू करना न केवल मजबूरी है बल्कि राज्य की जरुरत भी है।