विविधता _ओं से भरे देश को धर्म के आड़ में छीन-भिन्न करने का प्रयास

भारत एक साझी संस्कृति सहेजने वाला देश है, इस देश की विविधता इसकी कमज़ोरी है तो ताकत भी -विभिन्न जाति, उपजाति, धर्म-संस्कृति, भाषा समुदाय, पंथों आदि को संजोये रखने वाला देश है। इन ठोस तथ्यों के बीच हमारे देश के कुछ सांप्रदायिक संगठन देश की इस सामुदायिकता व विविधता को शाजिशाना तौर पर ख़त्म कर एक धर्म, एक नस्ल, एक ध्वज, एक विधान, एक संविधान एक खान-एक पान यहाँ तक कि एक पोशाक की विचारधारा के रूप में इस देश को बदल देने को आमादा है, जो कि इस देश की संविधान, आवोहवा व मिट्टी  के मिज़ाज से बिलकुल मेल नहीं खाती, जिसकी वजह से इस देश की एकता व अखंडता छीन-भिन्न हो रही है।

इस देश को प्रकृति ने भी विविधताओं से रचना की है जिसके कारण हमारी सभ्यता फली-फूली, इससे हम भली-भांति परिचित है। तमाम विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, फल-फूल, कांड-मूल, घास-पत्ती आदि इसकी विविधता ही तो बयाँ करती हैं। यही वजह है कि प्रकृति ने जहाँ एक तरफ इस क्षेत्र को आम, जामुन, महुआ आदि मिठास भरे फल से नवाजा है तो वहीँ संतुलन बनाए रखने के लिए कड़वे नीम, कसैले हर्रे, बहेरा आदि से भी नवाजा है। इस विविधता को हम कृषि में भी देख सकते हैं। यदि गेहूं के साथ चना या अन्य पौधे लगा दिया जाए तो कीटनाशक कि जरूरत तक नहीं पड़ती, प्रकृति खुद ब खुद संतुलन बना लेती है।

दंतकथाओं की माने तो -भारत पाक विभाजन के वक़्त कुछ मुसलमान पांच-छह माह उपरान्त भारत लौट आये उनका कहना था पाकिस्तान में एक ही तरह के लोग रहने लगे हैं, इसलिए वहां रहने में मजा नहीं। हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों को सामान रूप से सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार देता हैं। देश में करीब 14.2 फीसदी मुस्लिम हैं और 8 फीसदी आदिवासी। आदिवासी किसी स्थापित व संगठित से नहीं जुड़े हैं, वे तो प्रकृति पूजक हैं।

मसलन, मूलतः झारखंड गैर ब्राह्मणवादी विचारधारा वाला क्षेत्र रहा है। यहाँ बसने वाले लोग चाहे वो किसी भी जाति-धर्म के हों परन्तु उनका रहन-सहन, जीवन शैली झारखंडी ही है। झारखंड के संस्कृति में धर्म निरपेक्षता, सामुदायिकता व लोकतंत्र जैसे स्वाभाविक गुण स्वतः ही मौजूद हैं। लेकिन चंद तथाकथित संगठनों द्वारा झारखंड के इस गुण को निरंतर ख़त्म कर हिंदूवादी फासीवादी जैसे संस्कृति को थोपने का प्रयास लगातार किये जा रहे हैं। इस क्रम में इतिहास की किताबें बदल मिथक को इतिहास के रूप में परोसा जा रहा है, वैज्ञानिक चेतना को ध्वस्त करने के लिए स्कूलों तक को बंद करने से भी नहीं चूक रहे। -(साभार -रामदेव विश्वबंधु)    

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