चमकदार चेहरा!, धनी-पार्टी, स्वयंसेवकों की फौज!… पर वोट नहीं!

 

दामोदर दास पाठक

बीजेपी 2014 के चुनावों के बाद 8 सीटें हार चुकी है, कैराना, भंडारा–गोदिया, फूलपुर, गोरखपुर, अलवर, अजमेर, गुरुदासपुर, रतलाम, जबकि शिमोगा-बेल्लारी लोकसभा सीट खाली पड़ी हैं जहां उपचुनाव अभी होने हैं। मतलब भाजपा की सुई लोकसभा के जादुई आंकड़े 282 से घटकर 272 पर आकर खड़ी हो गयी है। ये आंकड़े आँखे दिखा कर भाजपा को डरा रही हैं कि आप 2019 में अपने बूते तो सत्ता में नहीं आ सकते। मतलब साफ़ है कि भाजपा को सहयोगी चाहिये, परन्तु पुराना गठबंधन इनके साथ रहना नहीं चाहता।  तो क्या इस परिस्थिति को भाजपा के लिए खतरे की घंटी समझा जाए। वहीँ दूसरे सहयोगी, विशेष राज्य के मुद्दे पर नीतीश कुमार नाराज चल रहे हैं, तो दलित मुद्दे पर रामविलास पासवान, सांसद उदितराज से लेकर यूपी के पांच बीजेपी सांसद भी नाराज है। हिन्दुत्व का राग अलापनेवाली भाजपा मुस्लिम को अपना वोटर तक नहीं मानती। इन्हीं हालातों के बीच अब नया संदेश कैराना से लेकर गोदिया-भंडारा तक से निकला है।

झारखण्ड के गणित में गोमिया और सिल्ली विधानसभा उपचुनाव में झामुमो की जीत विपक्षी एकता की सफलता मानी जा सकती है। झारखंड में भाजपा और आजसू के गठबंधन की गांठ ढीली हुई है। भाजपा ने सिल्ली से कोई उम्मीदवार नहीं दिया क्योंकि आजसू से पार्टी प्रमुख सुदेश महतो खुद चुनाव मैदान में थे, लेकिन गोमिया में भाजपा के साथ-साथ आजसू ने भी अपना उम्मीदवार दे दिया। चुनाव के दौरान गोमिया में मुख्यमंत्री रघुवर दास ने तीन दिन का कैंप किया। चुनाव से तीन दिन पहले गोमिया के नजदीक ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बड़ा कार्यक्रम हुआ। इसके बावजूद पार्टी बुरी तरह हार गयी। दूसरी ओर झामुमो ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतारा, विपक्ष एकजुट रहे। कांग्रेस, झाविमो, राजद, बामपंथ समेत अन्य विपक्षी दलों ने झामुमो का साथ दिया। परिणाम सकारात्मक रहा और दोनों ही सीटों पर झामुमो की जीत हुई।

एक तरफ सत्ता,  दूसरी तरफ प्रशासन और तीसरी तरफ गोदी मीडिया जहाँ झामुमो की जीत के गणित को लागातार प्रभावित कर रहे थे, वहीं जनता झामुमो की रीढ़ की हड्डी बने अडीग खड़ी थी। नेता प्रतिपक्ष हेमन्त सोरेन तमाम विपक्ष का धन्यवाद ज्ञापन कर सत्ता पक्ष को भली-भांति समझाने में सफल हुए कि इस उपचुनाव के नतीजे के माध्यम से जनता ने रघुवर दास के बिगड़े जुबाँ पर लगाम कस दिया है।  बिना किसी संदेह या अतिश्योक्ति के यह कहा जा सकता है कि 2019 में झारखण्ड में भाजपा गठबंधन की सरकार को यहाँ की माटी में गूंथने के लिए तमाम विपक्ष ने ताल से ताल मिला लिए है वहीं भाजपा को आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव के लिए नई रणनीति तैयार करनी होगी। साथ ही आजसू के साथ गठबंधन पर एक बार फिर पार्टी को मंथन करना पड़ेगा। नहीं तो बहुत कठिन है भाजपा के लिए डगर पनघट की।

जिस प्रकार हम देखते हैं कि कैराना में गन्ना किसानों का सवाल है तो एनकाउंटर में मारे जा रहे जाटों को लेकर भी सवाल है। जब सुंदर सिंह भाटी मारे गये तो जाटों को लगा ये उनकी दबंगई पर भी हमला है। ठाकुरवाद यूपी में इस तरह छाया है कि ऊंची जातियों में भी टकराव की स्थिति है। महाराष्ट्र में शिवसेना भी टकरायी और गोदिया भंडारा में पटेल-पटोले एक साथ आ गये। तो ऐसी स्थिति में सिर्फ मोदी-मोदी के नारे से क्या काम चल जायेगा? जो बीजेपी दुनिया की सबसे बडी पार्टी है, जिसके पीछे संघ के स्वयंसेवकों की फौज खड़ी है और इन्हीं के पास देश का सबसे चमकदार-सबसे लोकप्रिय चेहरा है जिसका कोई विकल्प नहीं तो फिर उसे 2019 की नैया पार करने में मुश्किल क्यों हो रही है। कायदे से देखा जाए तो उसे हार मिलनी ही नहीं चाहिये। फिर क्यों बीजेपी को एक के बाद एक उपचुनावों में हार मिल रही है?

मसलन, चुनावी नतीजे कई सवाल खड़े कर रहे हैं। तो क्या 2014 की चमकदार धारणा 2018 में ही बदलने लगी है? और 2019 की तरफ बढते कदम अभी से ये बताने लगे हैं कि संगठन या चेहरे के आसरे चुनाव लड़े जरुर जाते है, परन्तु जीतने के लिये जो परसेप्शन होना चाहिये वह परसेप्शन ही अगर जनता के बीच खत्म हो जाये तो फिर इंदिरा गांधी हो या अटल बिहारी वाजपेयी कोई चमक काम नहीं देती। कार्यकर्ता संगठन भी मायने नहीं रखता सब धरा का धरा रह जाता है।

सवाल है कि परसेप्शन बदल क्यों रहा है? जब मोदी फर्राटेदार भाषण देते ही है, अमित शाह पन्ना प्रमुख तक को सांगठनिक ढांचे में जगह दे चुके है और बीजेपी के पास फंड की भी कोई कमी नहीं है। मोदी सत्ता ने बाकि सभी को भ्रष्ट कहकर इसी परसेप्शन को बनाया कि वह ईमानदार हैं। तो मोदी को ईमानदार कहने वालों के जहन में ये सवाल तो है कि आखिर 2014 में सबसे करप्ट राबर्ट वाड्रा को 2018 तक भी कोई छू क्यों नहीं पाया। चुनाव जीतने के लिये दागी विपक्ष के नेताओं को साथ लेना भी गजब की सोशल इंजीनियरिंग रही। मुकुल राय हो या नारायण राणे या फिर स्वामी प्रसाद मोर्य बीजेपी ने इन्हे साथ लेने में कोई हिचक नहीं दिखायी।

परसेप्शन बदलता है तो गोंदिया के बीजेपी सांसद नाना पटोले किसानों के नाम पर बीजेपी छोड देते हैं। कुमारस्वामी भविष्य पर दांव लगाते हुए काग्रेस के साथ खडे हो जाते हैं। संयोग देखिये जिस पालघर से बीजेपी जीती वहाँ पर भी बीजेपी का उम्मीदवार पूर्व काग्रेसी सरकार में मंत्री रहे हुये था। दरअसल सच तो यही है कि बीजेपी के वोट कम हो रहे है और इस मटमैली धुंधली रेखा को जब देखियेगा तो अक्स यही उभरता है कि जिस चकाचौंध की लकीर को 2014 में बीजेपी ने जीत के लिये और जीत के बाद रेखांकित किया उसका लाभ उसे मिला। फलतः उनके वोट जरूर कम हो रहे है पर नोट कम नहीं हो रहे!

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