झारखंड आन्दोलनकारियों को हेमंत सरकार का आदरांजलि व श्रद्धांजलि

झारखंड आन्दोलन के सिपाहियों के आश्रितों की सीधी नियुक्ति, उन आन्दोलनकारियों को हेमन्त सरकार का आदरांजलि व श्रद्धांजलि माना जाना चाहिए

सत्ता तंत्र या किसी ख़ास व्यवस्था के सुनियोजित शक्ति प्रयोग से शोषण, दमन और अन्याय के मद्देनज़र जब जन अधिकारों को कुचला जाए, तो उसके विरोध में उठने वाले संगठित जन आवाज़ को आन्दोलन कहा जाता है। जिसका मकसद मानवीय मूल्यों पर आधारित सत्ता या व्यवस्था में सुधार या परिवर्तन होता है। जिसका दायरा राजनीतिक सुधारों के अलावा सामाजिक, धार्मिक, पर्यावरणीय या सांस्कृतिक लक्ष्यों की प्राप्ति भी होता है। भारत छोड़ो आन्दोलन, झारखंड आन्दोलन व मौजूदा दौर में किसान आन्दोलन इसका सजीव रूप हो सकता है। जिसके सम्मान में हेमंत सरकार के कृषि मंत्री भी पानी ले कर किसान आन्दोलनकारियों के बीच पहुंचे।  

आंदोलन एक सामूहिक संघर्ष है जिसकी आधारशिला आन्दोलनकारी रखते हैं। आन्दोलनकारी का अर्थ है, निस्वार्थ भाव से अपना सर्वस्व लूटा कर संघर्ष करते हुए आन्दोलन को सींचना व मकसद तक पहुँचना। ऐसे आन्दोलनकारी व्यक्तिगत न रह कर पूरे समाज का हो जाता है। और मानवता कहती है लक्ष्य पूरा होने के बाद उस समाज पर उन्हीं आन्दोलनकारियों का पहला हक माना जाना चाहिए। यदि कोई विचारधारा इस भावना को मानने से इनकार करता है, तो उसे मौक़ापरस्त, लोभी व व्यवस्था विरोधी कहा जाना चाहिए।

झारखंड आन्दोलन कुव्यवस्था, दमन, महाजनी प्रथा व अधिकारों के हनन के अक्स तले खींची गयी लकीर

देश में झारखंड आन्दोलन का खांका भी कुव्यवस्था, दमन, महाजनी प्रथा व अन्य अधिकारों के हनन के अक्स तले खींची गयी मानवीय लकीर थी। जिसमें कर्मठ सिपाही के तौर पर बिनोद बाबू, ए के राय, शिबू सोरेन समेत असंख्य झारखंडी बटे-बेटियों ने आन्दोंलानकारियों की भूमिका निभाई। अपनी हड्डियाँ गलाई, शहीद तक हुए। अब जब उनके मकसद पूर्ति के मद्देनज़र अलग झारखंड हमें मिल चुका है, तो झारखंड पर कायदे से पहला हक उन आन्दोलनकारियों व उनके परिवार का भी होना चाहिए है। जिसके तहत मानवता हमेशा उनकी सुध लेने की हिमायत करती है। 

हालांकि,  इस मूद्दे में झारखंड की पहली भाजपा सत्ता को ही कदम उठाना चाहिए था। लेकिन विडंबना है कि 14 वर्षों के भाजपा शासन में राज्य के आन्दोलनकारियों की अनदेखी हुई। उन्हें सिरे से ख़ारिज कर दिया गया। झारखंडी अस्मिता को अपने पहले आदिवासी मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी से इसकी उम्मीद नहीं थी। अलग झारखंड के 20 वर्ष हो गए, नयी पीढ़ी युवा हो गयी, और शिक्षा व ऐतिहासिक अक्षरों के अभाव में उनकी स्मृति से झारखंड आन्दोलनकारियों की स्मृति का बीजारोपण न हो सका। और न ही पूर्व की सत्ताओं में इस दिशा में कोई ललक ही दिखी। 

आन्दोलनकारियों की सुध लेने की दिशा में हेमंत सरकार का ठोस कदम बढ़ाए गए

तमाम विडंबनाओं के बीच, झारखंड में पहली बार आन्दोलनकारियों की सुध लेने की दिशा में हेमंत सरकार द्वारा सराहनीय पहल करते हुए ठोस कदम उठाये गए हैं। जहाँ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शहीद आंदोलनकारियों के सम्मान में उनके आश्रितों को सरकारी नौकरियों में सीधी नियुक्ति देने का एलान किया है। निश्चित रूप से हेमन्त सोरेन के इस ऐतिहासिक कदम को झारखंड के परिपेक्ष्य में देर से लेकिन दुरुस्त कदम कहा जा सकता है। उन तमाम आन्दोलनकारियों को हेमंत सरकार की ओर से आदरांजलि व श्रद्धांजलि माना जा सकता है। और जो मानसिकता इस फैसले को नौकरी फ्री में लूटाना करार दे रही हैं उसे क्या कहा जाना चाहिए वह आप तय कर सकते है…।

Leave a Comment