झारखण्ड-आन्दोलन और झारखंडी युवा

इतिहास के पृष्ठों पर अंकित समस्त आन्दोलनों के अंतर्गत जो क्रांतियां हुई उनमें युवाओं की भागीदारी हमेशा बढ़-चढ़ कर रही। युवा नेतृत्व ने न सिर्फ आन्दोलनों को दिशा दी, बल्कि उन लड़ाइयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर मुकाम तक पहुँचाया भी। यही जज्बा झारखण्ड-आन्दोलन के काल में झारखंडी युवाओं ने प्रदर्शित किया था। युवाओं की भागीदारी के बिना झारखण्ड-आन्दोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

बिरसा मुंडा ने युवा अवस्था में ही ब्रिटिश हुकूमत से “अबुआ दिसुम रे अबुआ राज” का नारा लगाते हुए जल, जंगल और जमीन के ऊपर आदिवासियों के प्राकृतिक एवं नैसर्गिक अधिकार को पुन: बहाल करवाने के उद्देश्य से लोहा लिया। “उलगुलान” (क्रांति) आन्दोलन भी बिरसा मुंडा और उनके युवा साथियों के बदौलत ही संभव हुआ। ठीक वैसा ही युवा-जोश और जज्बे का प्रदर्शन सिदो-कान्हू ने“संथाल हुल” के दौरान प्रदर्शित किए थे।

जब झारखण्ड के परिपेक्ष में ‘युवा शक्ति’ की बात करते हैं तो हमेशा हमारे समक्ष जुझारू और कर्मठ झारखंडी युवा के चेहरे उभरने लगते हैं। झारखण्ड-आन्दोलन के पूरे केनवास में स्मरण से परे छात्र-छात्राओं, किसान, मजदूर  एवं तमाम उन अभिज्ञ झारखंडी युवा सिपाहियों के अक्स उभरने लगते हैं। जिन्होंने भूखे-प्यासे रह कर बिना किसी स्वार्थ के अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए न केवल बढ़ चढ़कर हिस्सा ही लिया, बलिदान भी दिया। केवल और केवल उनका एक ही लक्ष्य था – “अपने अलग झारखण्ड” राज्य का निर्माण। (नमन उन झारखण्ड-आन्दोलन के सिपाहियों को…)

मौजूदा झारखण्ड में हम भली भांति देख सकते है कि कैसे यहाँ की जनता भूख से बिलबिलाते हुए काल के ग्रास बन रही है? कैसे यहाँ की माताएं अपनी ज़मीन को बचाने के लिए सरकार के चेहेते उद्योगपतियों के पैर पकड़ने को मजबूर हैं। कैसे यह सरकार स्कूल बंद कर आने वाली पीढ़ी को अज्ञान के अन्धकार में हवन दे रही है। कैसे यह सरकार शराब की दूकानों को कुकुरमुत्ते की भांति प्रतिरोपित कर रही है। घोटालों की श्रृंखला खड़ी कर चुकी यह सरकार ना जाने हमारे झारखण्ड को कौन सा रूप देना चाह रही, यह तो सिर्फ सरकार को या फिर भगवान को ही पता है। ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न उठना लाज़मी है कि क्या इसी झारखण्ड के लिए हमारे पूर्वजों ने कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए कुर्बानियां दी थी। आज हमें स्वयं से सवाल पूछने की आवश्यकता है कि क्या हमें वैसा ही झारखण्ड मिला जैसा हमारे पूर्वजों एवं शहीदों ने कल्पना की थी?

झारखण्ड को अस्तित्व में आये 18 वर्ष हो गए लेकिन झारखंडियत आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से झारखण्ड अबतक कोसों दूर है। झारखण्ड निर्माण से पहले भी आदिवासियों और मूलवासियों पर शोषण और अत्याचार होता था और अब झारखण्ड राज्य बन जाने के बाद भी सामंतवादी सोच रखने वालों का, सामाजिक न्याय के लिए आन्दोलन करने वाले लोगों के प्रति अपमान, शोषण, दमन जारी है। पिछले 4 सालों में मौजूदा सामंतवादी वाली सरकार ने जन-विरोधी ओर झारखण्ड-विरोधी नीतियों को कानूनी अमली जामा ओढ़ाकर यहाँ की जनता का जितना दमन किया है, उतना तो शायद अंग्रेजों के साथ-साथ पुराने शोषकों ने भी नहीं किया। स्थिति यह है कि अपने ही राज्य में झारखंडी जनता दोयम दर्जे की नागरिक बन कर रह गयी है। इस दमनकारी सरकार में न जमीन बच रही, न ही जान।

झारखण्ड की माटी फिर से अपने युवा पुत्रों का आह्वाहन कर रही है। कह रही है, पूर्व का आन्दोलन झारखण्ड निर्माण के लिये हुआ, पर इस बार का आन्दोलन झारखण्ड को संवारने के लिए होना चाहिए। इस आन्दोलन में भी युवा-शक्तियों को आगे आना ही होगा, वरना झारखंडी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और मान्यताओं का झारखण्ड बनाना असंभव है। यह भी गुजारिश कर रही है कि झारखण्ड की तक़दीर और तस्वीर बदलने के लिए झारखंडी बेटों-बेटियों को एक बार फिर उठ खड़े होने की आवश्यकता है। और इस दमनकारी सरकार के खिलाफ और एक “उलगुलान” और “हुल” करने की जरुरत आन पड़ी है। धरती आबा याद दिला रही है कि झारखण्ड की माटी आन्दोलनों और संघर्षों की माटी है, हमारे पूर्वजों ने हमेशा दमन और शोषण को मुँह तोड़ जवाब दिया है। अपने पूर्वजों की शहादत से प्रेरणा लेते हुए इस वक़्त के झारखंडी युवाओं को भी निरंतर संघर्ष का रास्ता अपनाते हुए झारखण्ड आन्दोलनकारियों के अरमानों का झारखण्ड संवारना होगा।

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