झारखण्ड : क्या लोकतंत्र की रक्षा में यह वक़्त का तकाजा नहीं कि पूर्व सीएम हेमन्त सोरेन को भी बहुजन की आवाज-पीड़ा को देश-राज्य के समक्ष रखने का सामान मौक़ा मिले.
रांची : सीएम अरविंद केजरीवाल आज 10 मई को बाहर आएं. लोकसभा चुनाव प्रचार के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा उन्हें 21 दिनों की अंतरिम जमानत मिली है. जो लोकतंत्र के लिए स्वस्थ खबर हो सकती है और सुप्रीम कोर्ट का जिम्मेदार लोकतांत्रिक पक्ष भी. इस दौरान वह सचिवालय नहीं जाएंगे और फाइलों पर दस्तखत भी नहीं करेंगे. ज्ञात हो देश में लोकसभा चुनाव अपने मध्य भाग पार कर रहा है. ऐसे में केजरीवाल की जमानत इंडिया गठबंधन के चुनाव कैंपेन की धार को तेज करेगा.
सुखद लोकतांत्रिक खबर के साथ ही इस प्रकरण ने झारखण्ड के बहुजन वर्गों के बीच कोलेजियम सिस्टम को लेकर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. सवालों के केंद्र में पूर्व सीएम हेमन्त सोरेन हैं. जनता का सवाल है कि जब लोकसभा चुनाव के मद्देनजर दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिल सकती है तो फिर हासिये पर खड़े वर्गों की नुमाइंदगी करने वाले पूर्व आदिवासी हेमन्त सोरेन को जमानत क्यों नहीं मिल सकती है? क्या आदिवासी होना ही उनका सबसे बड़ा कसूर है?
मसलन, सोशल मिडिया पर इस तथ्य से सम्बंधित सवालों की बाढ़ सी देखने को मिल रही है. एससी-एसटी और बुद्धिजीवी वर्गों का स्पष्ट कहना है कि मौजूदा दौर में जब यह वर्ग त्रासदिय दौर से गुजर रहा है. देश के महान संविधान को समाप्त करने की बात आरएसएस-बीजेपी के नुमाइंदे की मंचों से करने से नहीं चुक रहे हैं. ऐसे विकट दौर में उसके नेता को अंतरिम जमानत के आधार पर जेल से बाहर क्यों नहीं आने दिया जा सकता? क्या लोकतंत्र की रक्षा में यह वक़्त का तकाजा नहीं कि हेमन्त सोरेन को भी बहुजनों की आवाज-पीड़ा को देश-राज्य के समक्ष रखने का समान मौक़ा मिले.