वन अधिकार कानून के खिलाफ है ‘ लैंड-बैंक ’

‘ लैंड-बैंक ‘ वन अधिकार कानून के खिलाफ’

झारखण्ड एक ऐसा राज्य है जहाँ गाँव में वन नहीं बल्कि वनों में गाँव है। भारत का वन अधिकार कानून , 2006 यह स्वीकार करता कि वनों में रहते आये आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। इस कानून को ऐतिहासिक अन्याय को केंद्र में रखकर ही पारित किया गया है। औपनिवेशिक भारत में जब भारतीय वन अधिकार कानून, 1865 पारित हुआ तब सर्व प्रथम झारखण्डी आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत किया। ब्रिटिश हुकूमत इस अधिनियम की आड़ में आदिवासियों के प्राकृतिक एवं नैसर्गिक अधिकार पर हमला शुरू किया था। यह हमला आज भी चोला बदल कर जारी है और झारखंडियों का संघर्ष भी आज तक जारी है। संघर्ष निरंतर जारी भी रहेगा जब तलक आदिवासियों और मूलनिवासियों को उनका अधिकार और न्याय सुनिश्चित नहीं हो जाता।

कई प्रकाशित रिपोर्टों में या खुलासा हुआ कि वन विभाग में कार्यरत नौकरशाह और कर्मचारी वनों को अपनी जागीर समझते हैं। उनका आचरण आदिवासियों के प्रति अंग्रेजों जैसा ही है। जितनी भी वन नीतियाँ ( वन अधिकार कानून ) पूर्व या वर्त्तमान में बनी उसमे ब्रिटिश औपनिवेशिक नशा एवं आंशिक तत्त्व अब भी निहित हैं।

वन अधिकार कानून के अंतर्गत सबसे मुख्य प्राधिकरण ग्राम सभा होता है। वन अधिकार कानून, 2006 के तहत वन विभाग, राजस्व विभाग और कल्याण विभाग ग्राम सभा के सहयोगी संस्थायें हो सकती हैं, जिनका वैधानिक कर्त्तव्य मात्र ग्राम सभा द्वारा अनुसंशा को लागू करना है। इन संस्थाओं को ग्राम सभा द्वारा सिफारिश आवेदन को अस्वीकार करने का अधिकार नहीं होता है। व्यक्तिगत पट्टा या सामुदायिक पट्टा के आवेदन में कोई त्रुटी पायी जाए तो उस त्रुटी को दूर करने की जिम्मेदारी वन विभाग, राजस्व विभाग और कल्याण विभाग की  है।

मौजूदा भूमि बैंक ( लैंड-बैंक ) की अवधारणा वन अधिकार कानून के खिलाफ है। सामुदायिक जमीन को मुख्यत: दो भागों में विभक्त कर सकते  है।

  • गैर मजरुआ खास या मालिक (uncultivated common lands)
  • गैर मजरुआ आम जैसे सड़क, मसना, देसाउली या सरना, जाहेरथान, आदि

हम जानते है कि भूमि बैंक ( लैंड-बैंक ) गैर मजरुआ डीम्ड फारेस्ट की परिभाषा के अंतर्गत आने वाले विभिन्न प्रकार के जंगल, जंगल-झाड़ी, जंगल-टूंगरी/डुंगरी, जंगल-पहाड़ आदि सम्मिलित हैं। दूसरे प्रकार के सामुदायिक जमीन पर गाँव में रहने वाले सभी ग्रामीणों का सामुदायिक रूप से अधिकार होता है। इस प्रकार की सामुदायिक जमीन जैसे सरना, मसना, देसाउली, जहेरथान, चारागाह, खेल-मैदान, हाट, सामुदायिक तालाब, सामुदायिक खलिहान आदि को गाँव के पूर्वजों ने अपनी भावी पीढी के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-रिवाजों को पूरा करने के लिए सुनिश्चित किया है। परन्तु झारखण्ड सरकार झारखंडी समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जमीनों की महत्व को समझे बिना भूमि बैंक के द्वारा झारखंडी विरासत और प्रतीकों को लूटने की बिसात बिछा चुकी है। मौजूदा भाजपा-आजसू की सरकार न केवल सामुदायिक जमीन लूट रही है बल्कि झारखंडी संस्कृति, झारखंडी आस्था-विश्वास एवं धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है।

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