झारखण्ड: ईडी कार्रवाई की पारदर्शिता पर झामुमो को संदेह -सरयू राय के पत्र भी कर रहे यही इशारे

ईडी जांच दस्तावेज – कोर्ट में प्रस्तुत हो रहा है, मीडिया व भाजपा नेताओं तक पहुँच रहे है, लेकिन सरकार को उपलब्ध न होना संदेहास्पद. विधायक सरयू राय द्वारा पत्र लिखा जाना ईडी के जांच एंगल पर खड़े करते है सवाल. कपिल सिब्बल का पक्ष भी इसी और कर रहे हैं इशारे. भाजपा से हुई हड़बड़ी में गड़बड़ी…

राँची : झामुमो द्वारा झारखण्ड में चल रही ईडी कार्रवाई पर संदेह जताया गया है और पारदर्शिता पर प्रश्न उठाया गया है. ज्ञात हो, ईडी शेल कंपनियों से संबंधित दस्तावेज कोट में प्रस्तुत कर रहां है, मीडिया तक पहुँच रहे हैं, भाजपा नेताओं तक पहुँच रहे है. लेकिन सरकार को उपलब्ध नहीं होना संदेहास्पद है. नतीजतन, भाजपा हेमन्त सरकार की गलत छवि जनता के सामने प्रस्तुत कर रहा है. कहा जा रहा है कि झारखण्ड में 6 मई से ईडी कार्रवाई चल रही है. लेकिन ईडी द्वारा सरकार को सम्बंधित आधिकारिक जानकारी नहीं दिया जाना, लेकिन मीडिया में रिपोर्ट्स लगातार प्रसारित होना न केवल संदेहास्पद हैं, राजनीति से प्रेरित होने का साफ़ संकेत भर भी है.

विधायक सरयू राय द्वारा पत्र लिखा जाना ईडी के जांच एंगल पर खड़े करते है सवाल -क्योंकि उसी वर्ष 8 नवंबर 2016 कोनोटबंदी लागू हुई थी

पूर्व भाजपा और वर्तमान निर्दलीय विधायक सरयू राय ने पूजा सिंघल को वर्ष 2017 में मनरेगा घोटाले से आरोप मुक्त करने की प्रक्रिया पर सवाल उठाया जाना तथ्य को बल देते हैं. उनके द्वारा प्रवर्तन निदेशालय के डिप्टी डायरेक्टर को बाकायदा पत्र लिखा जाना कि सिंघल को आरोप मुक्त करने के निर्णय पर पहुंचने की प्रक्रिया की समीक्षा आवश्यक है, जांच के एंगल पर सवाल खड़े करते है. पत्र में विधायक सरयू राय द्वारा कहा जाना कि जिन आरोपों से पूजा सिंघल को पूर्व के झारखण्ड सरकार द्वारा मुक्त कर दिया, वह आरोप प्रवर्तन निदेशालय की जांच के आधार बने हैं.

पत्र में कहा गया है कि विभागीय कार्यवाही संचालन के लिए नियुक्त संचालन पदाधिकारी का पद अर्द्ध-न्यायिक होता है. संचालन की प्रक्रिया भी अर्द्ध-न्यायिक होती है. उपस्थापन पदाधिकारी और सरकार का संबंधित विभाग आरोप सिद्ध करने में भूमिका निभाता है. प्रक्रियानुसार संचालन पदाधिकारी के निर्णय की समीक्षा सरकार करती है. समीक्षा में उभरे बिंदुओं के आलोक में सरकार या उपस्थापन पदाधिकारी विषय को संचालन पदाधिकारी के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं. आरोपों की गंभीरता के मद्देनजर सिंघल को आरोप मुक्त करने के निर्णय पर पहुंचने के पूर्व राज्य सरकार के संबंधित पद सोपानों पर गौर किया गया है या नहीं, इसकी समीक्षा आवश्यक है.

ज्ञात हो, यह पत्र पूजा सिंघल के खिलाफ जांच में 2016 के पूर्व खूटी एवं चतरा जिलों में मनरेगा में हुई अनियमितताओं के संदर्भ हैं. 8 नवंबर 2016 को देश में नोटबंदी लागू हुई थी, जो 30 दिसंबर 2016 तक चली थी. इस दौरान जांचाधीन व्यक्तियों, व्यक्ति समूहों एवं इनसे संबंधित संस्थानों के वित्तीय लेन-देन पर एक नजर जांच की प्रक्रिया में डालनी चाहिए. पुस्तक ‘रहबर की राहजनी’ में वर्णित तथ्यों एवं कथ्यों को जांच के दायरे में लाने का आग्रह किया गया है.

जनहित याचिका कोर्ट में स्वीकार तक नहीं हुआ है, ईडी ने कोर्ट को सीलबंद दस्तावेज भी सौंपे. उसके आधार पर हाईकोर्ट ने कहा मामला सीबीआई को दिया जा सकता है – कपिल सिब्बल

ज्ञात हो, शेल कंपनी का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रझा है. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर कर सुनवाई पर रोक लगाने की मांग की है. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस रविंद्र भट्ट और जस्टिस सुधांशु दुलिया की खंडपीठ में शुक्रवार को आंशिक सुनवाई हुई. और सुनवाई की अगली तिथि 24 मई निर्धारित भी की है. राज्य सरकार के एडवोकेट कपिल सिब्बल ने एसएलपी में कहा कि शेल कंपनी को लेकर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है. अभी इसे स्वीकार नहीं किया गया है. इसकी मेंटेनेबिलिटी पर ही सुनवाई हो रही है. 

ईडी के अधिकारियों ने सीलबंद लिफाफे में कोर्ट को कुछ दस्तावेज सौंपे हैं. इन दस्तावेजों के आधार पर हाईकोर्ट ने कहा है कि मामला सीबीआई को दिया जा सकता है. जबकि कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई है. उन्होंने कहा की वह इसका उल्लेख सुप्रीम कोर्ट में करेंगे, क्योंकि इन दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर कैसे लिया जा सकता है. रिपोर्ट नहीं दिखाई जा रही. सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने कहा कि ठीक इसी तरह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया था. यहां भी इसी तरह का मामला है. 

हेमन्त सोरेन के वकील कपिल सिब्बल का पक्ष  

  • कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में दस्तावेज सौंपे गए थे. चीफ जस्टिस ने खोल कर पढ़ लिया और बंद कर दिया. यह पूरी प्रक्रिया गलत है. इसे खोलना सही नहीं था. इससे सारी जांच प्रभावित होगी. जज भी सही तथ्यों पर फैसला नहीं दे पाएंगे.
  • सीलबंद दस्तावेज में क्या है, यह किसी को नहीं दिखाया गया है. इससे दूसरी पार्टी भी सही ढंग से पक्ष नहीं रख पा रही है.
  • इस मामले में जनहित.याचिका नियम के अनुसार दाखिल नहीं की गई है, इसलिए यह याचिका मेंटेनेबल ही नहीं है. पहले याचिका की मेंटेनेविलिटी पर वहस होनी चाहिए. उसे स्वीकार करना चाहिए, फिर सुनवाई होनी चाहिए.

14 फरवरी के जिस आवेदन पर निर्वाचन आयोग द्वरा जवाब मांगा गया है, उस समय हेमन्त सोरेन नाम पर नहीं थी माइनिंग लीज -भाजपा से हुई हड़बड़ी में गड़बड़ी 

ज्ञात हो, जनप्रतिनिधित्व कानून के उल्लंघन का आरोप भाजपा ने सीएम के स्टोन माईस लीज लेने के आरोप में राज्यपाल से शिकायत की गई थी. भाजपा का आरोप था कि यह जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 9ए का उल्लंघन है. मुख्यमंत्री की विधानसभा की सदस्यता खत्म होनी चाहिए. राज्यपाल द्वारा निर्वाचन आयोग से संविधान की धारा 192 के तहत अयोग्य करार दिए जाने पर राय मांगी गई थी. आयोग द्वारा मुख्यमंत्री को नोटिस भेजकर जवाब मांगा गया था.

सूत्र के अनुसार सीएम ने जवाब में कहा कि 14 फरवरी के भाजपा के जिस आवेदन पर जवाब मांगा गया है, उस समय उनके नाम पर माइनिंग लीज नहीं थी. शिकायत में इस तथ्य को छिपाया गया. यह लीज 17 मई 2008 को 10 साल के लिए मिली थी. 2018 में लीज नवीकरण के लिए आवेदन दिया था, पर वह लैप्स हो गया. 2021 में फिर लीज मिली, लेकिन कार्यान्वित करने की मंजूरी नहीं मिली. 4 फरवरी 2022 को लीज सरेंडर का आवेदन दिया, जो मंजूर हो गया.

मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने आयोग को बताया है कि उन पर माइनिंग लीज सम्बन्ध में जो आरोप लगाए गए हैं, वह तथ्यों से परे एवं राजनीति से प्रेरित प्रतीत होता है. ऐसे में विधानसभा से अयोग्य किए जाने का कोई आधार नहीं बनता है. इसलिए चुनाव आयोग का नोटिस नहीं मानी जा सकती. जब मामले की सुनवाई शुरू होगी तो आवशयकता अनुसार कई कानूनी बिंदु अदालत के समक्ष पेश करेंगे.

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