पद की लालसा में झारखंडी चेतना को धोखा 

पद की लालसा में झारखंडी जनता को धोखा 

क्या वाकई बाबूलाल जी एक ऐसे मुहाने पर आ खड़े हुए हैं जहां झारखण्ड में संविधान एक बार फिर तार-तार होगा। क्योंकि इनकी कवायद संविधान में दर्ज जनता के मैनिफेस्टो को खारिज करते हुए सत्ता तक पहुंचने की जुगत से अधिक नहीं हैं। इनकी राह पद की लालसा में संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ ऐसा कदम है जो नेता प्रतिपक्ष के आसरे सत्ता तक पहुंचने के प्रयास को ही लोकतंत्र बना देना है। मौजूदा परिस्थितियों में भाजपा के संविधान का मतलब शायद ऐसा लोकतंत्र है जो सत्ता में बने रहने के लिए सत्ता को उखाडने के लिए जोड़-तोड़ का खेल। जो संविधान का नाम लेकर संविधान की मूल भावना के खिलाफ खेले जाने वाला खेल के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

जिन मुद्दों को आसरे बीजेपी सत्ता तक पहुंची उन मुद्दों के सरोकार कभी जनता के मान्यता से मेल खाई नहीं। ऐसे में भाजपा तो जमे जमाये मुद्दों के आसरे अपनी सियासी बिसात बिछा कर शार्टकट तरीके से सियासत करने की राह चुनती दिखती है। लेकिन वहीँ यह भी साफ़ हो जाता है कि बाबूलाल मरांडी केवल सत्ता सुख पाने के लालसा में बिना इस्तीफ़ा दिए ही नेता प्रतिपक्ष का सफर तय करना चाहते हैं। क्योंकि यही वे शख़्स हैं जो अपने छह विधायकों को ख़रीदे जाने पर पूरे पांच वर्ष न केवल भाजपा को पानी पी-पी कर कोसते रहे। बल्कि उसे चुनावी एजेंडा बना चुनाव भी लड़े। अब खुद 10वीं अनुसूची के मामले में झूलते दिख रहे हैं, तो कैसे इनके कदम को लालच या पद की लालसा से परे ना समझा जाए?

मसलन, बाबूलाल जी का रास्ता वहां जाता है जहाँ जनता के वह प्रयोग गौण हो जाते हैं जिसके आसरे पहली बार बहुसंख्यक आम जनता सत्ता परिवर्तन के दिशा में कदम बढ़ाई थी। तो क्या यह माना जाये कि इनसे अब सत्ता, सरकार या संसदीय राजनीति को लेकर आशा करना बेवकूफी होगी। क्योंकि मुद्दों को लेकर इस रास्ते का मतलब उसी चुनावी चक्रव्यूह में जाना है जहां पहले से मौजूद राजनीतिक खिलाड़ी हैं जो झारखंडियत  खंडित में ज्यादा सक्षम और हुनरमंद हैं। क्योंकि इसके तौर तरीके एक खास खांचे में सत्ता बना देते है या बिगाड़ देते हैं। और इसे प्रभावित बनाने वाली ताकतें बिना वोट दिये ही बहुसंख्यक वोटरो को प्रभावित कर देती हैं।

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