झारखंड में मानव तस्करी : सरकार और प्रशासन की अनदेखी या संलिप्तता?

झारखंड में मानव तस्करी के बढ़ते पैमाने ने न जाने कितने मासूमों की जिंदगियों को नरक से भी बदतर यातनाओं का भुक्तभोगी बनने के लिए विवश कर दिया है। न किसी बड़े सपने को पूरा करना, न कोई ख्वाबों के आसमान छूने की तमन्ना, बस केवल दो वक्त की रोटी के आसरे के लिए ये मासूम बच्चियां अपनी जिस्म के साथ-साथ अपने रूह तक का सौदा करने के लिए लाचार हैं।

झारखंड से तकरीबन एक लाख नाबालिग बच्चियां प्रतिवर्ष काम दिलाने के नाम पर राज्य से बाहर भेजी जाती है। परन्तु वहाँ उन्हे घरेलू नौकर बना दिया जाता है। जहां उन्हें घरों में 16-17 घंटों तक काम करना पड़ता है। साथ ही वहां न स़िर्फ उनके साथ मार-पीट की जाती है, बल्कि अन्य तरह के शारीरिक व मानसिक शोषण का भी वे शिकार होती हैं। इतना ही नहीं इन नाबालिगों को मोटी रकम के एवज में वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेल दिया जाता है।

यदि राज्य में हो रहे मानव तस्करी के तह को खंगाला जाए, तो पता चलता है कि इस कड़ी में लोकल एजेंट्स बड़ी भूमिका निभाते हैं। ये एजेंट गांवों के बेहद ग़रीब परिवारों की कम उम्र की बच्चियों पर नज़र रखकर उन्हें या उनके परिवार को शहरों में अच्छी नौकरी के नाम पर झांसा देकर अपना शिकार बना लेते हैं, लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि इन अपराधों को अंजाम इतने धड़ल्ले से खुले आम दिया जाता है और प्रशासन तमाशबीन बैठी रहती है, शिकायत दर्ज कराने पर भी चार्जशीट फाइल करने में कोताही बरती जाती है, जो कि कहीं न कहीं प्रशासन का तस्करों को मिल रहे अप्रत्यक्ष संरक्षण की ओर इशारा करती है। सरकार भी इस मामले में बड़े-बड़े भाषण देकर कान में तेल दिए सोयी हुई है।

सरकारी नीतियों का ठीक से लागू न होना, अत्यधिक ग़रीबी और शिक्षा की कमी ही झारखंड की बच्चियों को मानव तस्करी का शिकार बनने की सबसे बड़ी वजह बनता है। झारखंड की रघुबर सरकार इस पर अंकुश लगाने में पूरी तरह नाकाम तो है ही इसके उलट प्रशासन का लापरवाह कार्यप्रणाली इस जघन्य अपराध को फलने-फूलने में अहम किरदार निभा रही है। यहाँ तक कि बच निकले पीड़ित मासूमों को इंसाफ भी नसीब नहीं होता है। लेकिन फिर भी झारखंड में मानव तस्करी के आंकड़े और पैमाने में बढ़ोतरी थमने का नाम नहीं ले रही है। फिलहाल इस पूरे मामले में सरकार और प्रशासन का गैरजिम्मेदाराना रवैय्या शक के दायरे में खींच लाती है।

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