सुदेश महतो क्यों कर रहे हैं कुड़मी महापुरुषों का अपमान !

 

वो ठग है जो जगजाहिर है फिर भी अपनापन का ढोंग रचाया,
किस्मत हमारी फूटी थी जो अपनों ने ही उनका साथ निभाया !

ये कैसी आंधी है जो बिन बरसात के चला आया,
कुड़मियत के बहाने
वोट बैंक और कुड़मी को ही निशाना बनाया!

शासक बना झारखंड राज्य का, अक्खा झारखंड लूट गया…
तरस गये हम रोजी-रोजगार को फिर भी हमें न होश आया!

बाबू के सपनों का झारखंड अब राजनीतिक का मंच बना, रोजी-रोजगार, राशन-जमीन बाहरियों का रंगमंच बना! —स्व. विनोद बिहारी महतो

झारखंड में औद्योगिक विस्तार के समय लाखों एकड़ जमीनें सरकार के द्वारा अधिग्रहित की गई जिससे हजारों एकड़ में फैले जंगल साफ हो गये। इन उद्योगों में नौकरी, व्यवसाय, रोजगार, ठेकेदारी पाने के लिए बाहरी लोगों का तेजी से आगमन हुआ। औद्योगिकरण के कारण यहाँ जो शहर बने उनमें बाहरी लोग ही बसे और स्थानीय मूलवासी दूर हटने को मजबूर हुए। माफिया- संस्कृति पनपी, अपराध बढ़े। यहाँ के मूलवासियों को चौतरफा मार झेलनी पड़ी। परिणाम यह हुआ कि वे अपने जमीनों से विस्थापित हुए साथ-साथ बाहरी संस्कृति के प्रवेश से झारखंडियों का सांस्कृतिक-विस्थापन भी शुरू हुआ। अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी से वंचित हुए। नये खुलने वाले कलकारखानों, खदानो मे भी इन्हे नौकरी छोड़िये कोई हिस्सेदारी तक नहीं दी गई। कम लोग ही स्वतंत्र व्यवसाय करना जानते थे और इनके पास पूँजी भी नहीं थी। स्थिति ये बनी कि सरकारी हो, या प्राइवेट कम्पनियां, पदाधिकारी सभी बाहरी।

तीव्र गति से बदलती परिस्थितियों ने झारखण्डवासियों को महसूस करवा दिया कि वे इस बदलती दुनिया की विकास की दौड़ में उन्हें भागीदारी ही नहीं लेने दी जा रही है। मुख्य धारा तो छोड़िये उन्हें किसी भी अन्य धारा में लाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। उन्हें यह लगने लगा कि पूरी व्यवस्था ही उनके शोषण के लिए बनी है। वे अपने आप को अलग-थलग देखने लगे जिससे उनमें अलगाववाद का भावना घर करना स्वाभाविक था। ऐसी परिस्थितियों ने ‘अलग राज्य झारखंड माँग’  प्रतिकार का रूप लिया। फलस्वरूप बिहार से विभाजित हो अलग राज्य का उदय झारखंड के रुप मे हुआ।

झारखंड के जनक बिनोद बिहारी माहतो को यहां की जनता बिनोद बाबू” के नाम से जानती-मानती है। पिछले कई दशकों से कोयलांचल और लोहांचल की धरती के लिए यह नाम सर्वाधिक आदर व सम्मान सूचक रहा है।

स्व. बिनोद बाबू” 23 सितंबर 1921, धनबाद जिले में बड़ादाहा गांव के अतिसाधारण गरीब कुड़मी किसान परिवार में जन्में। बचपन से ही वे दृढ़-इच्छाशक्ति के धनी, अपने इलाके के पहले मैट्रिक पास छात्र रहे। वह बचपन से झारखण्ड की संस्कृति में इतने रचे बसे थे कि राह चलते हुए भी “सोहराय” गीतों के सुरों में पाठ जोर-जोर से याद किया करते थे। बिनोद बाबू के मां द्वारा घर मे उगाई सब्जियों को बेचने से इनकी पढ़ाई का खर्च वहन होता था। उन्होने वकालत पूरी की और धनबाद के उसी कोर्ट मे पहुंचे जहां एक समय किरानी रहते एक वकील से तिरस्कृत हुए थे।

बोकारो स्टील प्लांट की स्थापना के दौरान विस्थापितों पर हुए अत्याचारों से वे इतने मर्माहत हुए कि इनकी हक की लड़ाई लड़ना ही इन्होने अपने जीवन का परम उद्देश्य बना लिया। यही वो 1966-67 का काल था जब वे एके राय और शिबू सोरेन से जुड़े। जिसने झारखंड आंदोलन की दिशा-दशा तय कर दी थी। इससे पुर्व शिबू सोरेन “सोनोत-संताल समाज सुधार समिति”, एके राय सिंदरी मे “मजदूर युनियन” और बिनोद बाबू “शिवाजी समाज” आंदोलन द्वारा जनप्रिय छवि बना चुके थे। अबतक क्षेत्र की राजनीति मे इन तीनों की धमक नही हो पायी थी क्योंकि अभीतक कांग्रेस की सामंतवादी राजनीति का प्रभुत्व पूरे कोयलांचल पर हावी था।

विनोद बाबू गांव-गांव मे अपनी ठेठ शैली मे जनअदालत लगा समाज के सताये गये लोगों को न्याय दिलाने की मुहिम मे मग्न थे। वाणी की गरज और जोश ने उनकी क्रांतिकारी सामाजिक पृष्ठभूमि तैयार कर दी जिससे आततायी दबंग उनके नाम से ही सिहरने लगे। उन्हें महसूस हुआ कि सरकारी न्याय व्यवस्था से इतर जनअदालतों के माध्यम से अनपढ़ गरीब ग्रामीणो को न्याय दिलाने की पहल करनी होगी और इन्हे शिक्षित करना होगा। यही कारण था कि कभी किसी मंदिर-मस्जिद निर्माण हेतु चंदा नहीं देने वाले स्कूलों-कालेजों के लिए धन-जमीन दान दिए। उनके द्वारा धनबाद-पुरुलिया-बोकारो-गिरीडीह के सुदूरवर्ती गांवो मे अनेकों स्कूलों व कालेजो का निर्माण हुआ है। झारखंड आंदोलन के पुरोधा बनकर इन्होने न सिर्फ अलग राज्य निर्माण की नींव मजबूत की बल्कि शिक्षा आंदोलन के द्वारा सदियो से पिछड़े क्षेत्रो को राष्ट्र की मुख्यधारा मे लाने का प्रशंसनीय काम किया। उनका “पढ़ो और लड़ो” नारा सदियों से दमित जनजीवन के बीच धूमकेतू बनकर झारखंड के जनमानस मे कौंधने लगा। परंतु यह झारखंड का दुर्भाग्य रहा कि अलग राज्य आंदोलन को छोड़ अचानक 18 दिसंबर 1991 को  विदाई ले ली। दशकों से चले आ रहे झारखण्ड आंदोलन ने आखिरकार 15 नवंबर 2000 को झारखंडवासियों को नये राज्य की सौगात दी। वे सच्चे अर्थों मे झारखंड के जनक थे, हैं और रहेंगें।

बिनोद बिहारी महतो के बाद कुड़मी समाज के नेता के तौर पर आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो आज हाजिरी लगाने का हमेशा प्रयास करते है परन्तु उनमे विनोद बाबू जैसी कोई खूबी दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। जहाँ एक तरफ बिनोद बाबू ने स्कूल-कालेजों के निर्माण के लिए अपनी ज़मीनों को दान कर दिए, अपनी ज़मीन के लिए लोगों को लड़ना सिखाये, वहीँ सुदेश माहतो का नाम घोटालों से जुड़ रहे हैं। और तो और सीएनटी/एसपीटी एक्ट में संशोधन भी उनके शासन काल में हुआ। अगर स्व. विनोद बिहारी महतो के राजनितिक धरोहर को कोई ढो रहे है तो ये नाम सिर्फ झामुमो के नेतागण ही हो सकते है।

 

कुड़मी समाज ने आजसू पार्टी एवं सुदेश माहतो के खिलाफ तीखे किए तेवर 

कुड़मी समाज एंव बिनोद बिहारी माहतो के नाम पर स्वार्थ की राजनीति और सीएनटी/एसपीटी जैसे  स्थानीय नीति के मुद्दे को दबाने के साथ सरकार मे अपना समर्थन और ताकत दी है। साथ ही  गोल-मोल बयान देकर समाज तथा झारखंडियो को दिगभ्रमित कर रहे हैं। इस कारणवस आजसू पार्टी के खिलाफ कुड़मी समाज ने मोर्चा खोलते हुए आजसू पार्टी प्रमुख सुदेश महतो को चेताया था कि अगर पार्टी की मंसा समाज एंव झारखंड के प्रति साफ है तो पहले सरकार से अपना समर्थन वापस ले एवं सामूहिक इस्तीफा दें। फिर समाज की बात करें नहीं तो कुड़मी समाज उनके खिलाफ आंदोलन करेगी।

समाज के महापुरुष स्व. बिनोद बिहारी महतो के नाम पर सिर्फ निजी स्वार्थ की राजनिति कर रहे हैं आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो। अब इनका घमंड इतना सर चढ़ कर बोल रहा है कि वे खुद को कुड़मी समाज के इकलौते समझने लगे हैं और लगातार अपने समाज एवं झारखण्ड के महापुरुषों का अपमान कर रहे हैं। अब वे अपने किसी भी कार्यक्रमों में किसी भी कुड़मी समाज के महापुरुषों के फोटो नहीं लगाते न ही सम्मान प्रकट करते है। निजी फायदे के चक्कर में सुदेश जी आज झारखण्ड की अस्मिता, झारखण्ड का इतिहास, झारखण्ड की महान परम्परा भूल गए हैं तो ये सर्वविदित है की ऐसे व्यक्ति का पतन तय है।

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