उपलब्धि का सेहरा कोरोना वैक्सीन गुरु के सिर व विफलता का ठीकरा विपक्षी पर

केंद्र सरकार के कोरोना वैक्सीन गुरु ने वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया पूरी किये बिना ही सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक, द्वारा विकसित वैक्सीनों के आपातकालीन उपयोग को हरी झंडी दी गयी है

मंजूरी देने के क्रम में गुमराह करने वाली भाषा का किया गया है प्रयोग 

देश में हर उपलब्धि का सेहरा मोदी सरकार ख़ुद के सिर बाँधने और विफलता का ठीकरा विपक्षी दलों पर फोड़ने के लिए आतुर रहती है। कोरोना महामारी के दौर में सरकार का ज़ोर इस महामारी पर क़ाबू पाने की बजाय वाहवाही लूटने पर रहा है। यदि देश की राजनीतिक याददाश्त कमज़ोर नहीं है याद होगा कि किस प्रकार सरकार ने इण्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के ज़रिये वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों पर दबाव डाला था। ताकि 15 अगस्त को ख़ुद की पीठ थपथपाते हुए प्रधान सेवक लाल किले से दहाड़कर वैक्सीन की घोषणा कर सकें। लेकिन अफ़सोस, उस वक़्त प्रधान सेवक का यह सपना साकार न हो सका!

फिर बिहार विधान सभा चुनाव के मातहत भाजपा की ओर से यह वायदा किया गया कि सरकार बनने पर वह वैक्सीन मुफ़्त में उपलब्ध करवाएगी। दिसम्बर में प्रधान सेवक वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों में पहुँचकर वैज्ञानिकों को परम ज्ञान देते हुए फ़ोटो सेशन करवाया। मानो वैज्ञानिकों को वैक्सीन की खोज के लिए इसी प्रेरणा का इन्तज़ार था। अब जब वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से वैक्सीन एक वास्तविकता बनती दिख रही है, तो मोदी सरकार मौक़े को कैसे गँवा सकती है। 

मोदी सरकार वैज्ञानिकों की उपलब्धि का श्रेय ख़ुद लेने को आतुर, सब्र का प्याला छलक

वैज्ञानिकों की उपलब्धि का श्रेय ख़ुद लेने को आतुर मोदी सरकार का सब्र का प्याला छलक चुका है। नये साल की शुरुआत में ही वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया पूरी किये बिना ही मोदी सरकार ने दो भारतीय कंपनियों, सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक, द्वारा विकसित वैक्सीनों के आपातकालीन उपयोग को हरी झंडी दे दी गयी है और ज़ोर-शोर से प्रचार भी शुरू कर दिया गया है। इन दो वैक्सीनों, कोविशील्ड और कोवैक्सीन, को आनन-फ़ानन में हरी झण्डी मिलने से पहले ही अख़बारों के पन्ने वैक्सीन लगाने की तैयारियों की ख़बरों से पटे जा चुके थे। 

ख़बरों की विशेषता यह थी कि वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन निर्माण से सम्बन्धित व शोध से सम्बन्धित जानकारी कम थी और सरकार की तैयारियों पर ही ज़्यादा फोकास किया गया था। मानो प्रधानमंत्री और भाजपा के नेता-मंत्री ख़ुद ही प्रयोगशाला में बैठकर वैक्सीन बना रहे हों। टीवी पर तो एक चैनल ने मोदी को ‘वैक्सीन गुरु’ तक घोषित कर दिया था! राजनीतिक दबाव का सच इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि वैक्सीन को निर्माण के तमाम प्रक्रिया से गुजरे बिना आनन-फ़ानन में मंज़ूरी मिल गयी।

वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया बहुत लंबी होती है जिसमें सबसे पहले दवा का परीक्षण जानवरों पर किया जाता है। जानवरों में कारगर पाये जाने पर वैक्सीन का इन्सानों पर क्लिनिकल ट्रायल किया जाता है। मंज़ूरी मिलने के लिए किसी वैक्सीन को क्लिनिकल ट्रायल के तीन चरणों से होकर गुज़रना होता है जिनमें आम तौर पर 8-10 वर्षों का समय लगता है। कोरोना महामारी के मद्देनज़र इस प्रक्रिया को तेज़ किया गया है फिर भी दवा के साइड इफ़ेक्ट को जाँचने के लिए ट्रायल में कई महीने का समय तो लग ही सकता था। 

वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान कुछ लोगों को तंत्रिका सम्बन्धी समस्याएँ आयी 

यह परीक्षण किया जाता है कि वैक्सीन कितनी प्रभावी है। अगर लगता है कि लोगों को नुक़सान हो रहा है, तो परीक्षण रोक दिया जाता है। लेकिन कोरोना वैक्सीन को जल्द से जल्द विकसित किये जाने की होड़ में इन तीनों चरणों को एक साथ समांतर चलाया गया। नतीजतन ऑक्सफ़ोर्ड-ऐस्ट्रा ज़ेनेका, फ़ाइज़र व मॉडर्ना जैसी कंपनियों द्वारा तैयार वैक्सीन की सुरक्षा और प्रभाविता पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान कुछ लोगों को तंत्रिका सम्बन्धी समस्याएँ आयी थीं। इसके अतिरिक्त कोरोना वायरस की नयी क़िस्मों पर ये वैक्सीन कितनी प्रभावी होंगी, दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है।

भारत में तैयार की जा रही वैक्सीनों का मामला सबसे चिंताजनक है। भारत बायोटेक द्वारा विकसित की जा रही ‘कोवैक्सीन’ के मामले में तो तीसरे चरण की प्रभाविता के डेटा के बिना ही उसे मंज़ूरी दे दी गयी है। जिसके नतीजे बेहद ख़तरनाक हो सकते हैं। सीरम इंस्टीट्यूट की वैक्सीन के ट्रायल में शामिल एक व्यक्ति के स्वास्थ्य को गंभीर नुक़सान होने का दावा करते हुए कम्पनी पर पाँच करोड़ रुपये मुआवज़ा का मुक़दमा किया गया है। इस पर कम्पनी ने उसे चुप कराने के लिए फ़ौरन उस पर 100 करोड़ रुपये की मानहानि का मुक़दमा ठोंक दिया है।

कोरोना वैक्सीन की मंज़ूरी देने के लिए जिस भाषा का उपयोग किया गया है वह गुमराह करने वाली है

विशेषज्ञों ने ड्रग कण्ट्रोलर जनरल ऑफ़ इण्डिया द्वारा भारत की दो वैक्सीनों को आपातकालीन इस्तेमाल के लिए मंज़ूरी देने पर गम्भीर सवाल उठाये हैं। उनका कहना है कि क्लिनिकल ट्रायल के सभी चरणों के पूरे डेटा के बिना ऐसी आपातकालीन मंज़ूरी से लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है और वैक्सीन पर लोगों का भरोसा कम हो सकता है। इस मंज़ूरी को देते समय जिस भाषा का उपयोग किया गया है वह गुमराह करने वाली है क्योंकि उससे ऐसा लगता है कि मंज़ूरी मिलने के बाद भी क्लिनिकल ट्रायल जारी रहेगा। यानी, एक तरह से जिन लोगों को टीका लगाया जायेगा वह भी परीक्षण में ही शामिल होंगे।

इसके अलावा मंज़ूरी देने की इस पूरी प्रक्रिया में बरती गयी अपारदर्शिता पर भी सवाल उठ रहे हैं। जिस सब्जेक्ट एक्सपर्ट कमेटी की सिफ़ारिश के आधार पर ये मंज़ूरी दी गयी है उसके सदस्यों का ब्योरा और उनकी मीटिंग के मिनट्स सार्वजनिक नहीं किये गये हैं। इसके अलावा इन वैक्सीन पर किये गये शोध को किसी विशेषज्ञों की समीक्षा से गुज़रने वाली किसी शोध पत्रिका में प्रकाशित भी नहीं किया गया है, जोकि ऐसे अनुसन्धानों के मामले में किया जाता है। इन वजहों से इन दो वैक्सीन, ख़ासकर कोवैक्सीन, पर गम्भीर सवालिया निशान उठने लाज़िमी हैं।

कोरोना की इन वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल भोपाल गैस पीड़ितों के एक मोहल्ले में बिना बताये किया जा रहा 

एनडीटीवी में आयी एक ख़बर के अनुसार कोरोना की इन वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल भोपाल गैस पीड़ितों के एक मोहल्ले में किया गया था। जहाँ लोगों को यह जानकारी ही नहीं दी गयी थी कि यह क्लिनिकल ट्रायल है। एनडीटीवी के रिपोर्टर ने जिन लोगों का इंटरव्यू लिया उन्होंने बताया कि उन्हें क्लिनिकल ट्रायल से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं दी गयी थी और उन्हें यही लग रहा था कि यह कोरोना की दवा थी। यही नहीं कई लोगों को इस ट्रायल में शामिल होने के लिए 750 रुपये भी दिये गये थे। इससे स्पष्ट है कि कोरोना की वैक्सीन बनाने की इस पूरी प्रकिया में ग़रीबों को गिनी पिग की तरह इस्तेमाल किया गया।

कोरोना महामारी की शुरुआत से ही भारत के फ़ासिस्ट शासक इस आपदा में भी अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए अवसर तलाशते रहे हैं। वे अब लोगों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने से से भी नहीं चूक रहे। आख़िर जो वैक्सीन करोड़ों लोगों की जीवन-मृत्यु के सवाल से जुड़ा हुआ है, उसे लेकर इस क़दर सन्देह का माहौल कैसे और क्यों बन गया है? जाहिर है मोदी सरकार राजनीतिक फ़ायदा उठाने के क्रम में हर चीज़ को मज़ाक या सन्देह की वस्तु बना दी है।

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