मधुबन में संस्थाओं के गौरख धंधे पर सरकारी चाबुक

पारसनाथ पहाड़ी झारखंड के गिरिडीह जिले में स्थित पहाड़ियों की एक श्रृंखला है और वन क्षेत्र भी है। इसकी उच्चतम चोटी 1350 मीटर है और यहं पूर्व से आदिवासी बसते आये हैं। संथाल आदिवासी इसे देवता की पहाड़ी अर्थात मारंग बुरु कहते हैं।  वे बैसाख पूर्णिमा (मध्य अप्रैल) में अपनी पारम्पर को निभाते हुए एक शिकार त्यौहार मनाते हैं। इसके निचले क्षेत्र को मधुबन भी कहा जाता है। 

यह जैन धर्मावालियों के लिए भी सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल का केंद्र है। वे इसे सम्मेद शिखर कहते हैं। 23 वें तीर्थंकर के नाम पर ही इस पहाड़ी श्रृंखला का नाम पारसनाथ रखा गया है। कहते हैं चौबीस जैन तीर्थंकरों ने इस पहाड़ी पर मोक्ष प्राप्त किए। यहाँ स्थित कुछ मंदिर तो पुराने हैं, लेकिन कुछ हालिया दौर में बने हैं। इन जैन मंदिरों का संचालन कुछ पुराने समेत कई नयी संस्थाएं करते है। 

संस्थाओं पर आदिवासियों व सीएनटी के अंतर्गत आने वाली ज़मीनों को हड़पने का आरोप लगते रहे है

हालांकि, संस्थाओं का कहना है कि उनके मंदीर 4000 साल पुराने हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जब जैन धर्म का उत्पति ही बौद्ध काल के समकक्ष है – जिसका ऐतिहासिक प्रमाण विद्यमान हैं तो यह संभव ही नहीं हो सकता। जाहिर है किसी अन्य कारण वस किया गया मिथ्या प्रचार हो सकता है। इन संस्थाओं पर आदिवासियों की सीएनटी के अंतर्गत आने वाली ज़मीनों को हड़पने का आरोप लगता रहा है। साथ ही मंदीर के आड़ में गैरमजरुआ जमीन पर संस्थाए खड़े करने के भी आरोप लगते रहे हैं। 

यहाँ स्थित संस्थाएँ विश्व की पहली संस्थाएँ है जो यात्रियों से फाईव स्टार होटलों की तरह पैसे वसूलते हैं। मसलन, इनका कार्यशैली धार्मिक संस्थाओं की तरह न हो कर पूरी तरह वानिजिक है। फिर भी सरकार को कोई टैक्स नहीं भरते। झारखंड सरकार ने अब इनके गौरख धंधे पर कानूनी चाभुक चलाया है। सभी संस्थाओं को ज़मीन के कागज़ात पेश करने को कहा है। कुछ ने पेश किए है तो कुछ ने लॉकडाउन का बहाना बनाया है। 

स्थानीय विधायक सुदिव्य कुमार सोनू का संस्थाओं द्वारा आदिवासियों व सीएनटी ज़मीने हड़पने पर क्या कहते हैं  

स्थानीय झामुमो विधायक सुदिव्य कुमार सोनू ने इस मुद्दे पर कदम उठाते हुए इसकी शिकायत भू राजस्व विभाग से की है। इस सम्बन्ध में उनका कहना है – हमलोग जनता की बातों को सुनते है और उसके आधार पर निष्कर्ष करते हैं। मधुबन के अगल बगल बसे तमाम आदिवासिय व मूलवासियों के के अनुसार यहाँ स्थित संस्थाओं का विस्तार सीएनटी के अंतर्गत आने वाली ज़मीनों का अधिग्रहण कर हुआ है। गैरमजरुआ आम, वन भूमि और नाले के तौर पर चिन्हित ज़मीनों तक का अतिक्रमण किया गया है, जो न केवल कानूनन गलत है, बल्कि यहाँ के मूलवासियों के साथ अन्याय है।  

मधुबन में धर्मार्थ व सेवार्थ के नाम पर विशुद्ध रूप से वैवसायिक गतिविधियाँ चल रही है। मधुबन के पिछली बैठक उन्होंने कहा था कि यदि ये सस्थाएं धर्मार्थ हैं तो कमरों के मूल्य निर्धारण नहीं कर सकती। अगर मूल्य निर्धारण होता है तो उनके आवश्यक सेवायें जीएसटी के अंतर्गत आनी चाहिए। यदि वे कर नहीं दे रहें हैं तो सीधा धर्मार्द के नाम पर राजस्व को नुकसान पहुंचा रहे हैं। 

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