झारखण्ड के विकास में क्षेत्रीय भाषा बनेगा मुख्य वाहक – बंगाल-पंजाब जैसे राज्य सटीक उदाहरण  

झारखण्ड :  हेमन्त सोरेन पहले मुख्यमंत्री जिन्होंने राज्य में पोषित जातिगत घेरा तोड़ सभी मूलवासी वर्गों के क्षेत्रीय भाषा – संस्कृति, परम्परा व प्रतिनिधित्व को साथ लेकर आगे बढ़ने की दिखाई है दृढ इच्छाशक्ति

देश भारत प्राचीन संस्कृति व परम्पराओं की विशाल भूमि है जो क्षेत्रीय भाषा से सीधा सम्बन्ध भी रखती है. यही कारण है कि भौतिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, मानवीय व सामाजिक विकास में क्षेत्रीय भाषाओँ का गहरा प्रभाव होता है. भारतीय भाषाओं में कई क्षेत्रीय भाषाएँ राज्य के अस्तित्व के खड़ी भी दिखती है. यही वह विशेष कारण रहे है कि प्रत्येक राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषाओँ पर जोर देती है. चूँकि क्षेत्रीय भाषाओं से राज्यों की जनता का संस्कृतिक व पारम्परिक जुडाव होता है इसलिए वह उसके विकास का कारक भी होता है.   

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कई राज्यों बंगाल, ओड़िसा, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, पंजाब केरल जैसे राज्यों में देखा जा सकता है. ऐसे राज्यों ने अपनी क्षेत्रीय भाषा पर पकड़ कायम रखी. नतीजतन, इनका विकास हुआ है. ऐसे प्रदेशों ने कई मामलों में सफलता की सीढियाँ चढ़ी है. लेकिन झारखण्ड के परिपेक्ष्य में यह पहल 21 वर्षों तक नहीं हुआ. चूँकि झारखण्ड प्रदेश देश का खनिज बाहुल्य क्षेत्र हैं और केन्द्रीय राजनीति पर प्रभावी पूंजीपति मानसिकता के कारण यह संभव नहीं हो सका. 

झारखण्ड की जनता क्यों पिछड़ती गयी और गरीबी रेखा के नीचे आ खड़ी हुई

झारखण्ड जब का अलग राज्य के रूप में स्तित्व में आया तब प्रदेश में शिक्षा की दर निचली स्तर पर थी. राज्य में तकनीक व संसाधन का घोर अभाव था. नतीजतन, पूंजिप्रस्त राजनीति अपने एजेंडा चलाने में कामयाब रही. झारखण्ड आन्दोलन के नेतृत्वकर्ताओं को गौण किया गया. साजिशन उनपर आरोप का अम्बार लादा गया. दिशोम गुरु शिबू सोरेन जैसे नेता तक को मुख्यमंत्री के रूप में बैठने से रोका गया. नतीजतन, राज्य की संस्कृति, पारंपरा, इतिहास, भाषा जैसे ज़रुरी पैमाने छिन्न हुए. जिसका सीधा असर भौतिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, मानवीय व सामाजिक विकास पर पड़ा. राज्य की जनता पिछड़ती गयी और गरीबी रेखा के नीचे आ खड़ी हुई.

21 वर्षों बाद झारखण्ड में राजनीति ने करवट बदली. मौजूदा मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की सरकार ने राज्य के सभी वर्गों के मूलवासियों के अधिकार संरक्षण की दिशा में संवेदनशीलता दिखाई है. उनके इस अभियान में गठबंधन दल भी स्वीकृति के साथ आगे बढ़े हैं. झारखण्ड के 21 वर्षों के इतिहास में पहला मौका है जब राज्य के तमाम वर्गों के मूलवासियों की सुध ली गयी है. ज्ञात हो हेमन्त सोरेन पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने जातिगत घेरा तोड़ राज्य के सभी वर्गों के भाषा-संस्कृति, परम्परा व प्रतिनिधित्व को साथ लेकर आगे बढ़ने की दृढ इच्छाशक्ति दिखाई है. और राज्य की महिलाओं को एक जरूरी वर्ग मानते हुए महिला सशक्तिकरण की दिशा में आगे मजबूत पग बढ़ाया है. बहारियों के पक्ष में भी देश के संविधानिक के दायरे में मानवीय पहलू दिखाया है.

राज्य के क्षेत्रीय भाषाओँ में अधिकतम नुम्बर लाने वालों को केवल 7 अंक और बाहरी क्षेत्रीय भाषाओँ को शत-प्रतिशत

झारखण्ड राज्य की हेमन्त सरकार राज्य की मूल समस्याओं के स्थायी निराकरण में बेहिचक आगे बढ़ते दिखते हैं. उन्होंने पहला सुधार राज्य की क्षेत्रीय भाषाओँ को तमाम पैमाने पर मजबूती से स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ा किया है. ज्ञात हो, राज्य में सबसे अधिक सत्ता में रही बीजेपी के कार्यकाल में, परीक्षाओं में राज्य के क्षेत्रीय भाषों में अधिकतम नुम्बर लाने वालों को केवल 7 अंक और बाहरी क्षेत्रीय भाषाओँ को शत-प्रतिशत अंक मिलना, दर्शाता है राज्य की राजनीति में बाहरी मानसिकता किस हद तक अस्तित्व में रही है. लेकिन, मौजूदा दौर में केवल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ही नहीं उनके विधायकों ने भी झारखंडी भावना के अन्रक्षण में मोर्चा खोला है. 

https://youtu.be/iFiTuo-uvHI

जाहिर है ऐसे में भाजपा चुप तो बैठ नहीं सकती थी. मसलन, उसके द्वारा संवैधानिक मान्यता प्राप्त भाषा उर्दू को निशाना बना बाहरी क्षेत्रीय भाषाओँ का संरक्षण किया गया. लेकिन झामुमों विधायक सुदिव्य कुमार ने सन 2002 की, बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में, खरे की चिट्ठी सदन में पेश कर भाजपा के भ्रम आधारित राजनीति की पोल खोल दी. वहीं झामुमों विधायक सह शिक्षामंत्री जगरनाथ महतो ने सदन में खोरठा भाषा में चुटकी लेते हुए, सरकारी अधिकारी रहे वर्तमान विधायक लम्बोदर महतों की क्षेत्रीय भाषा प्रेम की पोल खोली.

https://youtu.be/IYcIxu4zIgc

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