आगामी महासमर 2019 के चुनावों को लेकर झारखण्ड के नेता प्रतिपक्ष हेमन्त सोरेन जिस लकीर को खींच रहे है वह केवल राजनीति भर नहीं है, बल्कि चुनावी महासमर या महाभारत की गाथा का ऐसे दस्तावेज तैयार कर रहे हैं, जिसमे संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा सत्ता के चरणो में नतमस्तक न रहे। साथ ही उनका यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास है कि झारखण्ड के आदिवासी-मूलवासियों के अधिकार संरक्षित हो।
हेमन्त सोरेन ने ऐसे वक़्त में अपनी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया, जब राज्य में सामाजिक-आर्थिक हालातों के बीच लोकतंत्र त्रासदी के दौर से गुजरने को मजबूर थी। जब नरेन्द्र मोदी के रोबोटिक मशीनरी रघुबर सरकार की कार्यशैली ने उस लोकतंत्र को ही लगभग खत्म कर दिया था जिसमे राजनीतिक दलों के जीने का हक लगभग समाप्त ही हो चुका था। इन्होंने प्रदेश के अंतिम पायदान पर खड़ी जनता तक अपनी आवाज पहुंचा कर उन्हें ढाढ़स बंधाया और राज्य की जनता के साथ-साथ अन्य कई राजनीतिक दलों को दिखाया कि कोई अपराजेय नहीं है।
शायद इन तथ्यों को झारखण्ड की जनता अब भली भाँती समझने लगी है। इसका साक्ष्य अभी चंद दिनों पहले समाप्त हुए पलामू प्रमंडल में झारखंड संघर्ष यात्रा के दौरान देखने को मिलता है। ऐसा माना जाता था कि इस प्रमंडल में झामुमो की पहुँच कम थी लेकिन यात्रा के दौरान उमड़े जन सैलाब ने एक बार फिर साबित किया कि अब इनका कद काफी बड़ा हो गया है। साथ ही जनता इन्हें गंभीरता से ले रही है।
इसका एक और ताज़ा उदाहरण कोलकत्ता में संपन्न हुए ममता दीदी की रैली में भी देखने को मिला। गठबंधन की छतरी तले विपक्ष का हुजुम में यह पहली नजर में ही साफ हो जाता है कि हेमन्त सोरेन आम से ख़ास की श्रेणी में आ गए हैं। साथ ही 19 जनवरी को उनके द्वारा दिए गए भाषण को प्रमुख मीडिया से लेकर भाषा तक ने जिस संजीदगी से उठाया, इसी ओर इशारा करता है।
बहरहाल, फ़र्ज़ी आँकड़े दिखाकर विकास का ढोल पीटने वाली भाजपा सरकार की हकीकत को हेमन्त सोरेन ने राज्य की जनता के बीच लाकर उनकी नैय्या मझधार में फंसा दी है। साथ ही कोलकाता में उनका भाजपा पर यह आरोप लगाना कि “आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में रघुबर सरकार आदिवासी-मूलवासियों के खिलाफ काम कर रही है” ने भाजपा की डगर पनघट और कठिन कर दी है।