झारखंड की प्रकृति और संस्कृति को ताक पर रखती सरकार

झारखंड की प्रकृति और संस्कृति की उपेक्षा

झारखंड प्रकृति की गोद में बसा वह प्रदेश है, मानो प्रकृति ने इसे अपने सान्निध्य से संवारा हो। इस जनजाति बाहुल्य राज्‍य के प्रत्येक क्षेत्र में  प्रकृति और संस्‍कृति का जबरदस्त समागम है। संस्कृति और रहन-सहन में विविधता रहने के बावजूद भी यहाँ के आदिवासियों में आपसी सौहार्द कायम है, वे खुद को एक सूत्र में पिरोये हुए हैं। इनकी सबसे खास बात यह है कि ये आज भी बिना किसी सरकारी मदद या प्रोत्साहन के न केवल अपने जल, जंगल, जमीन से जुड़े हैं बल्कि इनके संरक्षण को सदा तत्पर रहते हैं।

झारखंड की संस्कृति को निखारने में यहाँ के विभिन्न लोकनृत्यों, त्योहारों एवं वेशभूषा की अहम भूमिका है। पौष मेला (टुसू मेला) सोहराय, कर्मा, मागे, सरहुल आदि महत्‍वपूर्ण पर्व हैं। इस दौरान ये अपने देवता को चमकीले रंगों के साथ उत्‍कृष्‍टता से सजाते है और कई प्रतीकात्‍मक कलाकृतियों को भी लगाया जाता है। टुसू मेला कटाई का लोक त्‍यौहार है। टुशु पर्व लोकमत के अनुसार एक आदिवासी लोक की एक प्‍यारी सी लड़की कि जीवनी पर आधारित है। पूरे छोटानागपुर पठार क्षेत्र में, करम महोत्सव, स्थानीय लोगों के बीच काफी धूम धाम से मनाया जाता है। उरावं जनजाति के बीच, करम त्‍यौहार सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होता है, इसका सामाजिक और धार्मिक जीवन में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। क्षेत्र का महत्‍वपूर्ण सामुदायिक त्‍यौहार होने के नाते, इसे पूरी उरांव और अन्‍य समुदायों के बीच धूमधाम से मनाया जाता है।

परन्तु दुखद बात है कि  मौजूदा सरकार झारखंड की प्रकृति और संस्कृति एवं आदिवासियत से कोई सरोकार नहीं, सरोकार है तो केवल यहां की सम्पदाओं से। इसका खुलासा इसी बात से होता है कि 2014 के बाद से इस सरकार ने विभिन्न सरकारी योजनाओं के नाम पर अबतक लगभग 7 हजार हेक्टेयर वन भूमि का अधिग्रहण कर लिया है। जबकि निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा लगभग 14 हजार हेक्टेयर वन भूमि अधिग्रहण किया गया है। इंडियन स्टेट ऑफ़ फोरेस्ट रिपोर्ट (ISFR) के अनुसार खुले वन क्षेत्रों में 942.12 हेक्टेयर के दर से नगण्य रूप से वृद्धि हुई है, परन्तु अत्यधिक घने वनों में 70659 हेक्टेयर एवं सामान्य घने वनों में 141318 हेक्टेयर का भरी मात्रा में विनाश हुआ है। यह रिपोर्ट भाजपा सरकार के वन के प्रति झूठे प्यार का पर्दाफाश करता है।

राज्य की प्राकृतिक सम्पदाओं की भांति यहाँ की संस्कृति से जुड़े लोकनृत्य, उत्सवों या भाषाओँ को भी रघुबर सरकार के उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा है। यहाँ की क्षेत्रीय भाषाओँ को शिक्षा एवं पाठ्यक्रमों से शाजिशन एक-एक कर बाहर किया जा रहा है। साथ ही पूर्व में शामिल भाषायों के शिक्षक बहाल नहीं किये जाना भी यही इशारा करती है। झारखंड के लोकनृत्य, त्योहारों को बढ़ावा देने के लिए सरकार के पास कोई योजनाएं धरातल पर अबतक नहीं उतर पायी हैं, न ही पारम्परिक वेश-भूषा एवं अन्य लघु उद्योगों के उत्थान के लिए उचित सहयता। इसके उलट झारखंड के सांस्कृतिक मूल्यों को हिंदुत्व के रंग में रंगने की निरंतर कोशिश की जा रही है। आज हालत ये हो चुके हैं कि यहाँ के आदिवासी-मूलवासी अपने झारखंड की प्रकृति और संस्कृति रुपी धरोहर को बिसारने लगे हैं या फिर अपने बूते सम्भालने को विवश हैं।

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