हम भारत के लोग …?

“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा, उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए, दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।“

लगता है हमारे देश के महामहीम एवं प्रधानमंत्री महोदय संविधान की गरिमा को भूल चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है तो पुलिस-प्रशासन की मौजूदगी में संविधान का जलाया जाना क्या है? जबकि संविधान जलाना तो दूर इसके खिलाफ अपशब्द भी कहना दंडनीय अपराध है और ऐसे अपराध को रोकना पुलिस का पहला काम है। दिल्ली में 9 अगस्त को जंतर-मंतर में जिस तरह से एक समूह ने संविधान की प्रति जलाई और संविधान निर्माता को गालियां दी, वह भी पुलिस की मौजूदगी में, वह अपने आप में कई गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

इस तरह के कृत्य ‘दी प्रिवेंशन ऑफ इंसल्ट टू नेशनल ऑनर एक्ट (संशोधन) 2005’ के अधीन में आते हैं, जिसके अंतर्गत संगीन धाराओं में मुकदमा भी चलाये जा सकते थे परन्तु कुछ भी नहीं हुआ । 1971 में बने इस कानून में अगर कोई व्यक्ति देश के संविधान, देश के ध्वज, राष्ट्रगीत आदि का अपमान या किसी भी तरह उसे देश और विदेश में अपमानित करता है तो उसे दंडित किये जाने का प्रावधान निहित है।

फिलवक्त, हमारे देश की राजधानी में जिस प्रकार एक समूह द्वारा पुलिस की आंखों के सामने इस कुकृत्य को अंजाम दिया गया वह देश की प्रतिष्ठा पर चोट के बराबर है। अमूमन यह देखा जाता रहा है कि किसी भी प्रदर्शन जैसे नाटक, फिल्म, गीत आदि में देश और देश की अवमानना के खिलाफ किसी भी तरह के कृत्य को सेंसरशिप के ज़रिये हटाया जाता रहा है। आनंद पटवर्धन की फिल्म वॉर एन्ड पीस का उदाहरण यहां सबसे सटीक तौर पर लिया जा सकता है। ऐसे में इस घटनाक्रम के मद्धेनजर सरकार का ढुलमुल रवैया पूरे मामले को संदिग्ध बना देती है।

जब सोशल मीडिया में किसी भी धार्मिक ग्रंथ या किसी भी धार्मिक स्थल को लेकर दूसरे धर्मों द्वारा की गई अशोभनीय टिप्पणी को लेकर समाज में हफ्तों चर्चाएं हो सकती हैं तो एक लोकतांत्रिक देश में 72 वें स्वतंत्र दिवस के महज चंद दिनों पहले संविधान की प्रतियां जला दी गई और उसपर सरकारों का या प्रधान मंत्री के लालकिले के प्राचीर से दिए गए भाषण में कोई पक्ष तो छोड़िये जिक्र तक ना होना, इसे कैसे देखा जाए या क्या इशारा करती है?

देश की संसद में बैठे उन सभी सांसदों को भी उनके ग्रंथ (संविधान) जिसकी शपथ लेकर आज वे मंत्री, सांसद बने हैं, के जलाए जाने पर कोई धक्का क्यों नहीं लगा? उन्हें क्यों नहीं लगा कि उनकी आस्था पर एक चोट की गई है? कार्यकर्ता भी इस मुद्दे पर एकदम चुप हैं। उनकी इस चुप्पी से क्या समझा जाय कि हमारा लोकतंत्र नपुंसक हो चूका है।

यह घटना वहीं घटित हुई है, जहां भारत माता के खिलाफ लगाए नारों की डॉक्टर्ड वीडियो के सहारे जेएनयू के छात्रों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाता है। ‘देश के खिलाफ’ होने के आरोप के चलते भीम आर्मी प्रमुख अभी भी जेल में रासुका के साथ बन्द है। जिसके मद्धेनजर झारखण्ड के पत्थलगढ़ी को असंवैधानिक करार दे कर मुक़दमे चलाये जा रहे हैं। लेकिन दिल्ली में देश का संविधान जलाए जाने वाले लोगों पर एफआईआर तक के लिए सोशल मीडिया पर आन्दोलन और सरकार से गुहार लगानी पड़ रही है। मेन स्ट्रीम मीडिया को तो जैसे सांप सूंघ गया हो। देशविरोधी इस घटनाक्रम से देश की वैश्विक छवि को गहरा घाव लग सकता है। अभी भी भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर सजगता दिखती है। ऐसे में अगर ऐसे कृत्यों को समय रहते ना रोका गया तो भविष्य में समाज के बंटने के आसार बढ़ जाएंगे, जो अत्यंत विनाशकारी होगा।

हमारे संविधान में निहित आरक्षण को लेकर सबसे ज़्यादा विरोधाभास समाज में देखने को मिलता है। परन्तु आरक्षण को लेकर जब तक स्वस्थ बहसें सरकार और समाज में नहीं होंगी तबतक ये दोनों धड़े आपस में बंटे रहेंगे। विभिन्न सामाजिक अध्ययन भी यह बताते हैं कि संविधान गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं बल्कि सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मुख्य धारा में लाने का एक प्रयास है। यही इस संविधान की मुख्य पहचान में से एक है। जबकि दूसरी और जिस प्रकार आदिवासी-दलित-पिछड़ों को यातनायें दी जाती रही हैं उसे ध्यान में रखकर विशेष एक्ट का भी प्रावधान किये गए थे ताकि समाज का उच्च वर्ग शोषण करने से डरे। मौजूदा दौर में अगर किसी भी तरह के ज़रूरी परिवर्तन की ज़रूरत भी है तो सामाजिक शोधों के ज़रिये उसे जानने समझने का प्रयत्न करना चाहिए न कि नफरत का बीज बोकर संविधान को ही आग लगा दिया जाना चाहिए।

देश पर वैश्विक नज़र तेज़ी से बढ़ रही है, सरकारों को चाहिए कि निजी मसलों पर वोट की राजनीति को दरकिनार करते हुए हल निकालने का प्रयास करे  ना कि अव्यवस्थाओं को जन्म दे। आज की जरूरत यह है कि संविधान की प्रस्तावना पर यकीन करते हुए उसे सही अर्थों में लागू किये जाए, जिससे 1952 से लागू संविधान के स्वर्णिम निष्कर्ष भी सामने आ सके।

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