पाबन्दियों और कानूनी शब्दाडम्बरों के मायाजाल से जकड़ा 72वां  स्वतंत्रता उत्सव

भारतीय नागरिकों को प्रदत्त मूलभूत अधिकार पहले से ही न सिर्फ़ नाकाफ़ी हैं बल्कि जो चन्द राजनीतिक अधिकार संविधान द्वारा दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों और पाबन्दियों भरे संशोधित प्रावधानों से मौजूदा भाजपा सरकार परिसीमित करने का षड्यंत्र करती दिखती है। उसे पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो इस सरकार ने अपनी सारी विद्वता और क़ानूनी ज्ञान जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के बजाय एक मज़बूत राज्यसत्ता की स्थापना करने में में झोंक दिया हो। इन शर्तों और पाबन्दियों की बदौलत आलम यह है कि भारतीय राज्य को जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करने के लिए संविधान का उल्लंघन करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान में एक विशेष हिस्सा (भाग 18) आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों का है जो राज्य को आपातकाल घोषित करने का अधिकार देता है। आपातकाल की घोषणा होने के बाद नागरिकों के औपचारिक अधिकार भी निरस्त हो जाते हैं और राज्य सत्ता को लोकतंत्र का लबादा ओढ़ने की भी ज़रूरत नहीं रहती और जनता खुद को बेड़ियों की जकड़न में महसूस करती है। इन द्वन्द भरे लकीरों के बीच बेचारी जनता का मस्तिष्क कैसे 72 वां स्वतंत्रता दिवस में अपने को स्वतंत्र माने! इस सन्दर्भ को झारखण्ड की पृष्ठभूमि पर समझने का प्रयास करते हैं।

आज़ादी के 72 सालों में, झारखण्ड बुर्जुआ राज्य के आचरण पर निगाह डालने से यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ नज़र आती है कि यह राज्य सरकार, जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त तो दूर अपने काले क़ानूनों से इन अधिकारों का खुलेआम हनन करती आई है। यह झारखण्ड राज्य जनान्दोलनों के बर्बर दमन, नौकरशाही, पुलिस तंत्र और पफ़ौज के घोर जनविरोधी आचरण और हाल में नक्सलवाद के नाम पर देश की सबसे ग़रीब और बदहाल आदिवासी आबादी के खि़लाफ़ अघोषित युद्ध छेड़ने के लिए विश्व विख्यात है। इससे भी बड़ी विडम्बना तो यह है कि भारतीय राज्य ने इन काले कारनामों को अंजाम देने के लिए संविधान में ही मौजूद प्रावधानों का इस्तेमाल किया है।

हमारा खूबसूरत देश भारत में जहाँ एक ओर 77 फ़ीसदी आबादी आज 20 रुपये प्रतिदिन पर गुज़ारा करने पर मजबूर हो और दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक रफ़्तार से बढ़ रही हो वहाँ समानता और स्वतंत्रता जैसे मूलभूत राजनीतिक अधिकार का अन्तिम विश्लेषण मौजूदा सरकार के शासन काल में  बेईमानी ही साबित होगी, भले ही वे क़ानून और संविधान की दुहाई क्यों न देते हों। जिस देश में संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी बच्चों की लगभग आधी आबादी और महिलाओं की आधी से ज़्यादा आबादी भूख और कुपोषण की शिकार हो, जहां की जनता प्रतिदिन भूख की समस्या मर जाती हो,  जहाँ जातिगत और लिंग आधारित उत्पीड़न के नये-नये घिनौने रूप सामने आते हों, वहाँ जब कोई शोषण से मुक्ति के अधिकार का गुणगान करते हुए विकास की बात करता हो तो वह देश की बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के अपमान से अधिक कुछ नहीं लगता है।

या फिर, जहाँ पत्रकारिता इस दौर में भी यह कहे कि, हमें आज़ादी चाहिए या उसे पूछना पड़े कि देश में कानून का राज है या नहीं। या फिर, भीड़तंत्र ही न्यायिक तंत्र हो जाए और संविधान की शपथ लेकर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों में बैठी सत्ता कहे कि भीड़तंत्र की जिम्मेदारी तो अलग-अलग राज्यों में संविधान की शपथ लेकर चला रही सरकारों की है। तो जिस आज़ादी का जिक्र आजादी के 72वें बरस में हो रहा है, क्या वह डराने वाली नहीं है? क्या एक ऐसी उन्मुक्तता को लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है? फिर ऐसी स्थिति में आवाम अपने एक वोट के आसरे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज़ादी का जश्न कैसे मनाए?

जहाँ उत्साही समर्थक इस बात का ज़ोर-शोर से बख़ान करते नहीं थकते हैं कि यहाँ हर नागरिक को यह मूलभूत अधिकार प्राप्त है कि यदि राज्य या कोई व्यक्ति उसके मूलभूत अधिकारों का हनन करता है तो वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगा सकता है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त तो यह है कि न सिर्फ़ भौगोलिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी न्याय पद्यति देश के आम नागरिक की पहुँच से काफी दूर है। चाहे इसका कितना भी ढिंढोरा पीट लिया जाये, न्यायिक प्रक्रिया का बेहद लम्बा और बेहिसाब ख़र्चीला होने की सूरत में संवैधानिक उपचार का अधिकार भी महज़ औपचारिक ही बन गया है। भारत की आम बहुसंख्यक जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाजत करने में यह लगभग पिछड़ता प्रतीत हुआ है। यही नहीं भारतीय राज्य ने नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने की ज़िम्मेदारी निभाना भी ज़रूरी नहीं समझा। यही वजह है कि अनपढ़ और ग़रीब आबादी तो दूर, पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के अधिकांश लोग भी अपने मूलभूत अधिकारों के प्रति सर्वथा अनभिज्ञ पाये जाते हैं। इस प्रकार तत्कालीन सरकार द्वारा संशोधित मौजूद मूलभूत अधिकार बेहद सीमित हैं और जनता को जो कुछ अधिकार दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों, पाबन्दियों और कानूनी शब्दाडम्बरों के मायाजाल से जकड़ कर प्रभावहीन बना दिया गया है।

बड़ी बात यह है कि देश की पहचान पीएम से होती है और राज्य की पहचान सीएम से। लेकिन अबकी बरस सीएम की कार्यशैली से राज्य की पहचान मटमैली हो गयी है।

मतलब, हर्फउक्त तथ्यों की रोशनी में साफ़-साफ़ देखा जा सकता हैं कि पूँजीपतियों का भारत अपने नेताओं, सांसद और नेताशाही के दम पर पुलिस और सेना के इस्तेमाल कर किस प्रकार 100 करोड़ से ज़्यादा जनसंख्या वाले मज़दूरों और ग़रीबों के भारत का शोषण कर रहा है। एक बात तय है कि ग़रीबों, मेहनतकशों की आबादी को हमेशा-हमेशा के लिए दबाया नहीं जा सकता। निश्चित ही एक दिन आयेगा जब ये लोग जागेंगे और पाबन्दियों के साथ–साथ कानूनी शब्दाडम्बरों के मायाजाल को समझेंगे। साथ ही अपने वर्ग-हितों को पहचान कर अपनी सामूहिक-संगठित शक्ति से इस सरकार की गुलामी से न सिर्फ़ स्वयं मुक्त होंगे बल्कि पूरी मानवता को मुक्त करेंगे, तब जाकर सही मायने में स्वतंत्रता का उत्सव सार्थक साबित होगा।

Leave a Comment