...इस लेख को शुरू करने से पहले याद दिला दूं कि पिछले लेख में पुलिस विभाग की रिक्त पदों के साथ-साथ सरकार के स्किल झारखण्ड के लिखा गया था। आज की शुरुआत शिक्षा के क्षेत्र की रिक्त पदों से की जायेगी।
झारखण्ड के शिक्षक एवं दुखी पारा शिक्षक की स्थिति
स्कूल शिक्षा और साक्षरता मिशन विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य संचालित उच्च विद्यालयों में हेडमास्टर्स के सभी 1,336 स्वीकृत पद रिक्त हैं। जबकि झारखंड राज्य कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) को 668 रिक्तियों को भरने का दायित्व सौंपा गया था, लेकिन परिणाम अबतक कुछ भी नहीं निकला है। झारखण्ड के 2,627 माध्यमिक विद्यालयों में सहायक शिक्षकों की स्वीकृत पदों की संख्या 28,892 है। इनमें से 18,674 पद रिक्त हैं। पिछले नवंबर में, स्टाफ चयन आयोग ने इन रिक्तियों के लिए भर्ती परीक्षा आयोजित की थी, लेकिन अबतक उसमें भी कोई नई नियुक्ति नहीं हुई है। 510 प्लस-टू स्कूलों में, स्नातकोत्तर प्रशिक्षित शिक्षकों (पीजीटी) के स्वीकृत पद 5,610 हैं, लेकिन केवल 1,707 ही कार्यरत हैं। आयोग ने 3,080 पीजीटी शिक्षकों की नियुक्ति के लिए भर्ती परीक्षण आयोजित किए, लेकिन अबतक इससे जुड़े परिणाम भी प्रकाशित नहीं कर सके हैं। साथ ही 89 मॉडल स्कूलों में पीजीटी शिक्षकों के सभी 979 स्वीकृत पद रिक्त हैं। नवंबर 2017 में आयोग को इन रिक्तियों को भरने के लिए कहा गया था पर यहाँ भी कुछ नहीं हुआ। जबकि 203 कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में भी, सभी 2,030 स्वीकृत पीजीटी शिक्षक के पद रिक्त हैं।
सरकार द्वारा 7 मार्च 2016 को घोषणा हुई थी कि शिक्षा की बदहाल स्थिति को दुरुस्त करने हेतु प्रदेश में 30,000 कांट्रेक्ट शिक्षक नियोजित किए जायेंगे, लेकिन इस मामले में भी अबतक किसी प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की गयी है। जबकि पारा शिक्षकों को तो भुला ही दिया गया है। स्कूलों के विलय पर रोक, रिक्त पदों को भरना, समान काम के समान वेतन, कल्याण निधि का गठन आदि जैसे प्रमुख मांगों को अबतक पूरा नहीं किया गया है।
आंगनवाडी सेविका एवं सहायिकाओं का हाल
झारखण्ड राज्य की लगभग 80 हजार आंगनबाड़ी सेविकाओं एवं सहायिकाओं ने अपनी मांगो को लेकर आंदोलन किया था। आंदोलन की मूल वजह आंगनबाड़ी केंद्रों के दायित्वों के निर्वहन के अलावा सरकार की लगभग सभी प्रमुख योजनाओं से इन आंगनबाड़ी सेविकाएं एवं सहायिकाएं को जोड़ा जाना था। यहाँ तक कि, इन्हें परियोजना स्तर तक की गड़बडिय़ों के लिए को दंडित किया जाता है। परन्तु जब मानदेय में बढ़ोतरी एवं स्थायीकरण की मांग करते हैं तो यह सरकार लगातार इनकी अनदेखी कर रही है।
आंगनबाड़ी सेविका को 10 वर्ष तक 4,400 रुपये प्रतिमाह वेतन दिया जाता था, परन्तु रघुवर सरकार ने इनके साथ मजाक करते हुए मानदेय बढ़ोतरी के नाम पर महज 63 रुपये की बढ़ोत्तरी की। यह विडंबना नहीं तो क्या है। सरकार अपने सभी योजनाओं-कार्यक्रमों का क्रियान्वयन अधिकांशतः इन्हीं के द्वारा कराती है, लेकिन मानदेय एवं सुविधा के नाम पर इस सरकार के पास भद्दा मजाक या टालमटोल के सिवाय इनके लिए कोई अतिरिक्त फण्ड नहीं है।
केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के साथ मिलकर इसके तहत आने वाले ‘श्रमिकों’ को 3000 रुपये प्रतिमाह और ‘सहायकों’ को 1500 रुपये प्रतिमाह ही मजदूरी प्रदान करता है। यह लोग बेहतर मेहनताना और लाभ के लिए सालों से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन केंद्र सरकार उनकी मांगों को स्वीकार करने और उन्हें नियमित श्रमिकों के रूप में पहचाने जाने के बजाय ‘स्वैच्छिक श्रमिक’ के रूप में वर्गीकृत कर रही है, जिसके तहत इन्हें केवल ‘मानदंड’ ही दिया जाता है।
ज्ञात हो कि झारखंड की आंगनवाड़ी श्रमिकों को महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और त्रिपुरा जैसे अन्य बीजेपी शासित राज्यों की तुलना में 15-20% कम भुगतान किया जाता है। मार्च/अप्रैल 2018 में इन्हें रोजगार अधिसूचना की उम्मीद थी, लेकिन मामला अबतक लंबित है। – …जारी
नोट: …अगले लेख में मनरेगा मजदूर एवं बाल मजदूरी को समझने का प्रयास करेंगे।