शहीद भगतसिंह की ‘जेल नोटबुक’ से…

 

उदित गोस्वामी

भगत सिंह ने कहा था “क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है”

भारतीय इतिहास के इस दुर्लभ दस्तावेज़ का महत्त्व सिर्फ़ इसकी ऐतिहासिकता में ही नहीं है बल्कि भगतसिह के अधूरे सपने को पूरा करने वाली भारतीय क्रान्ति आज एक ऐसे पड़ाव पर है जहाँ से नये एवं प्रचण्ड वेग से आगे बढ़ने के लिए इसके सिपाहियों को ‘इन्‍क़लाब की तलवार को विचारों की सान पर नयी धार देनी होगी। यह नोटबुक उन सबके लिए विचारों की रोशनी से दमकता एक प्रेरणापुंज है जो इस विरासत को आगे बढ़ाने का जज़्बा रखते हैं।

इस नोटबुक को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने बार-बार उस नौजवान की छवि उभरती है जो फाँसी के फन्दे के साये में बैठकर भारतीय इन्‍क़लाब के रास्ते की सही समझ हासिल करने और उसे लोगों तक पहुँचाने के लिए आखि़री पल तक अध्ययन-मनन और लेखन में जुटा रहा। जेल में उन्होंने दुनियाभर के प्रगतिशील साहित्यकारों, क्रांतिकारियों को पढ़ा और एक नोटबुक में उनके अंशों को उतारा। आज जेल नोटबुक से कुछ अंश आपके सामने पेश कर रहे हैं।

 कोई वर्ग नहीं! कोई समझौता नहीं!!

सुधरी हुई राजनीतिक संस्थाएँ, पूँजी और श्रम के बीच समझौता कराने वाली परिषदें, परोपकार और विशेषाधिकार जो पूँजीपतियों की खैरातों के अलावा और कुछ नहीं हैं – इनमें से कोई भी चीज़ उस सवाल का जवाब नहीं दे सकती जो मन्दिरों, सत्ता के सिहासनों और संसदों को कँपकँपा रहा है। जो लोग दबे-कुचले हैं और जो लोग उनकी पीठ पर सवार होकर आगे बढ़े हुए हैं, अब इन दोनों के बीच कोई अमन-चैन नहीं रह सकता। अब वर्गों के बीच कोई मेल-मिलाप नहीं हो सकता; अब तो वर्गों का सिर्फ़ अन्त ही हो सकता है। जब तक पहले न्याय न हो, तब तक सद्भावना की बात करना अनर्गल प्रलाप है, और जब तक इस दुनिया का निर्माण करने वालों का अपनी मेहनत पर अधिकार न हो, तब तक न्याय की बात करना बेकार है। दुनिया के मज़दूरों की माँग का जवाब उनकी मेहनत की समूची कमाई के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। (जॉर्ज डी. हेरसन) – (जेल नोटबुक के पेज 34 पर भगतसिंह द्वारा उद्धृत)

 

जीवन का उद्देश्य

“जीवन का उद्देश्य मन को नियन्त्रित करना नहीं बल्कि उसका सुसंगत विकास करना है, मरने के बाद मोक्ष प्राप्त करना नहीं, बल्कि इस संसार में ही उसका सर्वोत्तम इस्तेमाल करना है, केवल ध्यान में ही नहीं, बल्कि दैनिक जीवन के यथार्थ अनुभव में भी सत्य, शिव और सुन्दर का साक्षात्कार करना है, सामाजिक प्रगति कुछेक की उन्नति पर नहीं, अपितु बहुतों की समृद्धि पर निर्भर करती है, और आत्मिक जनतन्त्र या सार्वभौमिक भ्रातृत्व केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब सामाजिक-राजनीतिक और औद्योगिक जीवन में अवसर की समानता हो”।  -(जेल नोटबुक के पेज 124 पर भगतसिंह द्वारा उद्धृत)

 

जनतन्त्र

जनतन्त्र, सैद्धान्तिक तौर पर, राजनीतिक और क़ानूनी समानता की एक प्रणाली है। लेकिन ठोस और व्यावहारिक कार्रवाई में, यह मिथ्या है, क्योंकि कोई समानता तब तक नहीं हो सकती, यहाँ तक कि राजनीति में और क़ानून के समक्ष भी नहीं, जब तक कि आर्थिक शक्ति में असमानता मुँह बाये बरक़रार रहेगी;  जब तक कि सत्ताधारी वर्ग मज़दूरों के रोज़गार पर, देश के प्रेस और स्कूलों पर तथा जनमत तैयार करने और अभिव्यक्त करने के सभी साधनों पर अपना अधिकार जमाये रखेगा,  जब तक कि यह सभी प्रशिक्षित सार्वजनिक कार्यकारी निकायों पर अपना एकाधिकार बनाये रखेगा,  और चुनावों को प्रभावित करने के लिए बेशुमार धन ख़र्च करता रहेगा,  जब तक कि क़ानून सत्ताधारी वर्ग द्वारा बनाये जाते रहेंगे और अदालतों में इसी वर्ग के सदस्य अध्यक्षता करते रहेंगे, जब तक वकील प्राइवेट प्रैक्टिशनर बने रहेंगे और अपनी विधि विशेषज्ञता का कौशल सबसे अधिक फ़ीस देने वाले को बेचते रहेंगे,  तथा अदालती कार्रवाई तकनीकी और महँगी बनी रहेगी, तब तक क़ानून के समक्ष यह नाममात्र की समानता भी एक खोखला मज़ाक़ ही बनी रहेगी। एक पूँजीवादी व्यवस्था में, जनतन्त्र की पूरी मशीनरी बहुसंख्यक मज़दूर वर्ग को पीड़ित कर, सत्ताधारी अल्पसंख्यक वर्ग को सत्ता में बनाये रखने का काम करती है, और जब बुर्जुआ सरकार को जनतान्त्रिक संस्थाओं से ख़तरा महसूस होता है, तब ऐसी संस्थाओं को अक्सर बड़ी बेरहमी के साथ कुचल दिया जाता है। – फ़्राम मार्क्स टु लेनिन” (मॉरिस हिलक्विट कृत) – (जेल नोटबुक के पेज 46 पर भगतसिंह द्वारा उद्धृत)

 

जीवन और शिक्षा

लोग सिर्फ़ अपने बच्चे की ज़िन्दगी की सलामती के ही बारे में सोचते रहते हैं, लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है, अगर वह मनुष्य है तो उसे स्वयं भी अपनी ज़िन्दगी की सलामती के बारे में शिक्षित होना ज़रूरी है, ताकि वह भाग्य के थपेड़ों को सह सकें, सम्पदा और ग़रीबी का बहादुरी से मुक़ाबला कर सके, ज़रूरत पड़ने पर आइसलैण्ड की बर्फ़ के बीच या माल्टा की तपती चट्टानों पर निवास कर सकें। बेकार ही तुम मौत के ख़िलाफ़ खैर मनाते हो, उसे मरना तो है ही, और भले ही तुम अपनी सतर्कताओं के चलते उसे न मरने देना चाहो, लेकिन यह मुगालता ही है। उसे मौत से बचने के बजाय जीने की शिक्षा दो! जीवन साँस लेना नहीं बल्कि कर्म है। अपनी इन्द्रियों का, अपने दिमाग़ का, अपनी क्षमताओं का, और अपने अस्तित्व को चेतन बनाये रखने वाले प्रत्येक भाग का इस्तेमाल करना है। जीवन का अर्थ उम्र की लम्बाई में कम, जीने के बेहतर ढंग में अधिक है। एक आदमी सौ वर्ष जीने के बाद क़ब्र में जा सकता है, लेकिन उसका जीना निरर्थक भी हो सकता है। अच्छा होता कि वह जवानी में ही मर गया होता। एमिली – (जेल नोटबुक के पेज 117 पर भगतसिंह द्वारा उद्धृत)

 

जिन  लेखकों के उद्धरण भगतसिह ने अपनी डायरी में उतारे, उनके प्रति उनके रुख में पूरी सुसंगति है। शुरू में वह 18वीं सदी की अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रान्तियों तथा विचारकों के प्रति भारतीय क्रान्तिकारियों का परम्परागत लगाव दर्शाते हैं। उन्होंने रूसो [7] टॉमस पेन[8], टॉमस जैफरसन और पैट्रिक हेनरी[9] के स्वतन्त्रता तथा मानव के जन्मसिद्ध अधिकारों पर विचार नोट किये। पृष्ठ 16 पर उन्होंने पैट्रिक हैनरी का निम्न भावपूर्ण कथन नोट किया: “क्‍या ज़िन्दगी इतनी प्यारी और चैन इतना मीठा है कि बेड़ियों और दासता की क़ीमत पर उन्हें ख़रीदा जाये। क्षमा करो, सर्वशक्तिमान प्रभु! मैं नहीं जानता कि वे क्या रास्ता अपनायेंगे, मुझे तो बसः ‘स्वतन्त्रता या मौत’ दो।”

नोटबुक में आये अधिकांश सन्दर्भों की जानकारी हमने पाठकों को देने की कोशिश की है, फिर भी कुछ सन्दर्भ अज्ञात रह गये हैं। पाठकों से अनुरोध है कि यदि उन्हें इस बारे में जानकारी हो तो हमें बतायें।

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