ठेका कंपनिया के साथ मिलकर उद्योगिक क्षेत्र मजदूरों का दोहन कर रही है। हेमन्त सोरेन का मजदूर के हित में खिंची गयी ऐतिहासिक लकीर, सरकारों के लिए आईना हो सकता है
औद्योगिक क्षेत्र के मुनाफ़े की चक्की के मद्देनज़र, मज़दूरों की जायज शिकायत कम्पनी प्रबंधन से लेकर सरकारी प्रशासन तक में अनसुनी हो। मानव संसाधन व सरकारी तंत्र शिकायतों के हल के बजाय दमन में जुट जाए। जहाँ सत्ता तक के सरोकार मज़दूर हित से इतर पूँजीपति की फ़िक्र से जा जुड़े। अख़बार व चैनल के तार कम्पनीयों से जुड़ मज़दूरों को गुंडे-बदमाश कहने से न चूके। तो तमाम परिस्थितियां इकट्ठे ग़ुस्से को मजदूर विद्रोह के रूप में प्रदर्शित कर सकते हैं। विस्ट्रॉन इन्फ़ोकॉम के कोलार प्लाण्ट की घटना इन्हीं परिस्थितियों का हिस्सा भर हो सकता है।
याद करे, ऐसी ही परिस्थिति उन झारखंड मजदूर, जो सीमा सड़क निर्माण से जुड़े थे, के साथ भी थी। जिन्हें कोरोना त्रासदी में, झारखंड के मुख्यमंत्री ने लगभग केंद्रीय व्यवस्था से जंग लड़ प्लेन से वापस बुलाया था। जो मजदूर व उनके परिवारों के लिए राहत की साँस बनी। उस दौर में भी सांसद निशिकांत दुबे के बोल मजदूरों के पक्ष में न होने के बावजूद, हेमन्त सोरेन का मजदूरों के हित में खिंची गयी ऐतिहासिक लकीर, देश के सरकारों के लिए आईना हो सकता है। जिसके अक्स तले सरकारें समस्याओं के हल के मातहत पूंजीपति व मजदूर के बीच पूल बना सकती है।
हेमन्त सोरेन द्वारा अपनाया कदम श्रम कानूनों के अनुपाल को सुनिश्चित करेगा
याद कीजिये हेमंत सोरेन के सामने बीआरओ थी और उसके महानिदेशक मुख्यमंत्री से मुलाकात की। मुख्यमंत्री अपने मजदूरों को लेकर अड़ गए, कहा श्रमिकों को ले जाने से पहले बीआरओ को जिला प्रशासन के साथ समझौता करना ही पड़ेगा। जो श्रम कानूनों के अनुपाल को सुनिश्चित करेगा। जो श्रमिकों की भर्ती प्रक्रिया में पारदर्शिता लाएगी और बिचौलियों की भूमिका का खात्मा करेगी। मुख्यमंत्री ने कहा श्रमिकों के मजदूरी भुगतान, श्रम कानूनों के मातहत हर माह उनके बैंक खाते में भुगतान हो। और कॉन्ट्रैक्ट के दौर में उनकी सुरक्षा का भी पूरा ध्यान रखा जाए। इतनी मांग ही तो मजदूरों की होती है, जिसकी वकालत संविधान की अक्षरें भी करती है।
मसलन, मोदी सत्ता की श्रम नीतियाँ, ठेका कंपनियों को अंग्रजों की ज़मींदारी प्रथा (लगान वसूली व्यवस्था) के समान्तर मजदूरों का दोहन करने का लाइसेंस दे रही है क्या? विस्ट्रॉन जैसी कंपनियां 10000 मजदूरों को खाटाती है, लेकिन कंपनी में स्थाई मज़दूर महज 1343 हो। बाकी मजदूरों को ठेका कंपनियों के ज़रिये ले कम्पनी अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ ले। और जहाँ ठेका कंपनियों का मज़दूरों के दिक़्क़तों से कोई सरोकार न हो। तो चुनावी चंदे के मद्देनज़र देश उस सत्ता की नीतियों को ग़रीबों के हित में कैसे मान ले। और देश इन्हीं परिस्थितियों से उपजी त्रासदी से जोड़कर किसान आन्दोलन को क्यों न देखे?