हेमन्त सोरेन : राष्ट्रीय राजनीति में तेजी से आगे बढ़ता एक शख्स, जिसे दोनों केन्द्रीय गठबंधन अपने-अपने ढंग से प्रभावित कर रहे हैं. देश की केन्द्रीय राजनीति में आदिवासी आहट का इशारा.
रांची : राष्ट्रीय राजनीति में तेजी से आगे बढ़ता एक शख्सियत, जिसे दोनों केन्द्रीय गठबंधन अपने-अपने ढंग से प्रभावित कर रहे हैं, वह और कोई नहीं झारखण्ड मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन हैं. भाजपा अपने प्रचलित तरीके [ED/ CBI/ Income Tax आदि ] के आसरे अपने प्यार का इज़हार कर रही है तो कांग्रेस अपने तरीके से. ज्ञात हो, 2019 की लोकसभा चुनाव के बाद ‘झारखण्ड’ पहला राज्य था जहाँ हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में भाजपा को जनता ने नकारते हुए विपक्ष को पूर्ण बहुमत दिया था.
ज्ञात हो, आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित 28 सीटों में से 26 सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. उस चुनाव में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने गठबंधन के अक्स में न केवल 70% सीटों पर जीत हासिल की, सहयोगी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी रिकॉर्ड सीटों पर जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ऐसा लग रहा था कि झारखण्ड अपने इस नए नेता का इन्तजार कर रही थी. हालांकि इस महत्वपूर्ण तथ्य पर राज्य की स्थापित मीडिया अब तक ध्यान नहीं दे पाई है.
आज हेमन्त सोरेन सबके प्रिय और राजनीतिक जरुरत
जो मीडिया झारखण्ड के इस उभरते नेतृत्व को नजदीक से देख रहे हैं उन्हें 2019 विधानसभा चुनाव के दौरान भी हेमन्त सोरेन के समर्थन में राजस्थान के मीणा, मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ के गोंड, भील, ओड़िसा के खोंड, पश्चिम बंगाल के संथाल जैसे आदिवासी समूह से सोशल मीडिया के माध्यम से प्रेषित समर्थन दिख रहा था. बाद के दिनों में झारखण्ड एवं उसके बाहर के क्षेत्रों में विभिन्न आदिवासी समूहों के बीच हेमन्त सोरेन की स्वीकार्यता लगातार और बढ़ती गयी है.
मौजूदा दौर में स्थिति यह बनी कि INDIA गठबंधन के आदिवासी मंचों का सबसे पसंदीदा चेहरा हेमन्त सोरेन बन गए हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हों या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हों या ओड़िसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हों, आज हेमन्त सोरेन सबके प्रिय और राजनीतिक जरुरत हैं. यह अनायास ही नहीं हुआ है. हेमन्त सोरेन का मानना है कि उनको यहाँ तक पहुँचाने में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के जुझारू कार्यकर्ताओं की अथक मेहनत है.
आन्दोलनकारी पिता दिशोम गुरु शिबू सोरेन की जन विरासत के साथ-साथ देश में आदिवासी राजनीति की वर्तमान विकट परिस्थिति भी मददगार है. वर्तमान में किसी भी बड़े राज्यों की मुख्यमंत्रियों की सूची में लोकतंत्र का झंडा थामे हेमन्त सोरेन इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री खड़े दिखते हैं. मैदानी भारत में इन्होंने जिस कुशलता से जीत दर्ज की है और जन कल्याणकारी योजनाओं के आसरे भाजपा-आजसू की राजनीति को पटखनी दी है, कोई दूसरा आदिवासी चेहरा इनके समीप नहीं दिखा.
आदिवासी समुदाय भारतीय जनता पार्टी से बना ली है दूरियां
आज हेमन्त सोरेन के जन पहचान को भाजपा जब अपने तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों और केन्द्रीय मंत्रियों के बल पर नहीं साध सकी है तो केन्द्रीय एजेंसियों के आसरे इन्हें झुकाने का प्रयास कर रही है. तमाम परिस्थितियों के बीच यही आखिरी सच है कि भाजपा चाहे कितना भी आगे क्यों न बढ़ गयी हो, वनवासी एजेंडे के अक्स में आदिवासी मिजाज को समझने में आसमर्थ है. किसी ने ठीक ही कहा था -‘गुरुरे बेखबर ये बात तुझे कौन समझाए? वो सर झुक ही नहीं सकता जिसे कट जाना आता है’.
कुछ महीने पहले कर्णाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम स्पष्ट संकेत दिया कि देश का आदिवासी समुदाय भारतीय जनता पार्टी से दूर हो रहा है. शासन में रहने के बावजूद कर्णाटक में भाजपा को एक भी आदिवासी सीट पर जीत नहीं मिल सकी. उससे पहले भी झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओड़िसा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भाजपा के खिलाफ मतदान करके आदिवासी समाज लगातार अपना इरादा और मंशा जता रहा है.
भाजपा ना केवल झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में चुनाव हारी. आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा ज्यादा बुरी तरह से हारी. कर्णाटक -15 में 0, झारखण्ड -28 में 02, एमपी -47 में 16 , छत्तीसगढ़ -29 में से 02, आंध्र प्रदेश – 01, तेलंगाना – 02 आदि कुछ राज्यों के आदिवासी आरक्षित सीटों पर पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन के आंकड़े है. साथ ही यह आंकड़े देश में आदिवासी वर्ग की अपनी अलग संगठित राजनीतिक ज़मीन बनाने के इरादे और मंशा को स्पष्ट करती है.
आगामी चुनावों में आदिवासी भाजपा के लिए एक नयी और बड़ी चुनौती
तमाम परिस्थितियों को देखते हुए स्पष्ट कहा जा सकता है कि आने वाले चुनावों में राष्ट्रीय दलों, खासकर भाजपा के लिए आदिवासी वर्ग एक नई बड़ी और कठिन चुनौती बनने जा रही है. देश में विभिन्न राज्यों को आदिवासी जनसंख्या के लिहाज से देखें तो, 05 राज्यों गुजरात, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान में आदिवासी समुदाय के लोगों की संख्या 01 करोड़ से ज्यादा है. 3 राज्यों पश्चिम बंगाल, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदाय की संख्या 50 लाख से ज्यादा है.
5 राज्य -असम, कर्नाटक, मेघालय, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में आदिवासी समुदाय की सँख्या 25 लाख से ज्यादा है. वैसे तो हेमन्त सोरेन ने अब तक झारखण्ड के बाहर किसी अन्य राज्य में विशेष सक्रीयता नहीं दिखाई है. लेकिन, भविष्य में अनुकूल होती परिस्थितियों को देखते हुए दूसरे राज्यों में उनके सक्रीय होने की स्थिति से इनकार भी नहीं किया जा सकता. ऐसे में भाजपा कभी नहीं चाहेगा कि हेमन्त सोरेन INDIA गठबंधन के आदिवासी चेहरे के रूप में देश में भाजपा के खिलाफ प्रचार करे.
विश्व आदिवासी दिवस : हम आदिवासियों के DNA में डर नामक शब्द नहीं
हेमन्त सोरेन का विश्व आदिवासी दिवस, महोत्सव के मंच से कहना कि ‘हम आदिवासियों के DNA में डर नामक कोई शब्द नहीं, हमारे पूर्वजों ने ही इसे निकाल कर फ़ेंक दिया था’ सबों को याद होगा. और दिशोम गुरु का कहना ‘सभी आदिवासी वर्गों का एक होने का वक़्त है’ ऐसे में ED/CBI/IT आदि का केन्द्रीय डर के अक्स में यह दिलचस्प हो चला कि भाजपा अब हेमन्त सोरेन को किस ढंग से अपने पाले में करने का प्रयास करती है. या आदिवासी समुदाय से होने वाली हानि को कैसे कम करती है. वह भी तब जब आदिवासी राष्ट्रपति का एजेंडा फ़ैल हो चला हो.
क्योंकि, सरना धर्म कोड, वन उत्पाद का उचित समर्थन मूल्य, आदिवासी शिक्षा, आदिवासी आर्थिक सबलता, वन अधिनियम, सीएनटी/एसपीटी, वनवासी शब्द, आदिवासी पलायन-विस्थापन-तस्करी, जैसे आदिवासियों से सम्बंधित राष्ट्रीय विषयों पर बतौर आदिवासी हेमन्त सोरेन की मुखरता, आने वाले दिनों में भाजपा के लिए परेशानी का सबब है. और तमाम परिस्थितियों के बीच केन्द्रीय एजेंसियों के रोड़ों के अक्स में लगातार हेमन्त सोरेन का बढ़ता राजनीतिक कद देश में बड़े आदिवासी आहट के तरफ स्पष्ट इशारा कर रही है.
परिस्थिति पर सटीक बैठती चार पंक्तियाँ :-
पत्थर की चमक है ना ये हीरे की चमक है, चेहरे पे सीना तान के जीने की चमक है.
पुरखों से विरासत में जो कुछ भी है मिला, जो दिख रही है वह उसी खून-पसीने की चमक है.