मोदी सरकार में महंगाई से गरीबों की मुसीबतों का पहाड़ हुआ और वज़नी 

जनता के एक हिस्से को ‘बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ जैसे लुभावने नारे से भरमाकर भाजपा अपनी महंगाई तो दूर कर ली, लेकिन देश को महंगाई की अग्नि में झोंक दिया. खाने-पीने की चीज़ों से लेकर बुनियादी ज़रूरतों तक पर बेरोकटोक महँगाई है. साथ ही कोरोना महामारी में मोदी जी द्वारा उछाले गये नारे “आपदा में अवसर” का लाभ उठाकर उद्योगपतियों-व्यापारियों-जमाख़ोरों ने मूल्य वृद्धि के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं. करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया. आमदनी न होने की स्थिति में महँगाई ने देश की तीन-चौथाई आबादी के सामने जीने का संकट उत्पन्न कर दिया है.

खाने-पीने और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों में महंगाई बेरोकटोक बढ़ी है. सब्ज़ियों से लेकर अनाज, तेल और दूध तक के दामों में बेहिसाब बढोतरी हुई है. आम जनता के अलावा निम्न मध्यवर्गीय आबादी तक के लिए पेटभर पौष्टिक खाना जुटाना दूभर हो गया है. पेट्रोल-डीज़ल और रसोई गैस के दामों में लगातार जारी बेहिसाब बढ़ोत्तरी ने देश की कमर तोड़कर रख दी है. रेल-बस के भाड़े, अस्पताल की फ़ीस-दवाएँ, बिजली-पानी – लगभग हर चीज़ में आग लगी है. और मजेदार बात यह है कि महंगाई से देश भर में जीने का संकट पैदा हो गया. लेकिन यह सच्चाई/मुद्दा अख़बारों व टीवी चैनलों की सुर्ख़ियों से बाहर है.

महंगाई है देश में गोदी मीडिया ख़बरें पाकिस्तान की 

गोदी मीडिया देश को भरमाने के लिए लीक से हट कर ख़बरें उछालता है – जैसे “पाकिस्तान महंगाई से तबाह” है. लेकिन उसे देश की जानलेवा महँगाई दिखायी नहीं देती. उच्च मध्य वर्ग के ऊपरी हिस्से की आमदनी में कोरोना काल में लगातार जो बढ़ोत्तरी हुई है. जिसके कारण इस वर्ग पर महँगाई का असर ज़्यादा नहीं हुआ है. दरअसल, इस वर्ग की आमदनी का एक छोटा-सा हिस्सा ही खाने-पीने की चीज़ों पर ख़र्च होता है. और आमदनी का बड़ा हिस्सा मनोरंजन, कपड़ों जैसे सामानों पर ख़र्च होता है. अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठने से इस वर्ग की भी कमाई कुछ कम तो हुई है, लेकिन इतनी नहीं कि उन्हें ज़रूरी ख़र्चों में कटौती करनी पड़े.

लेकिन महंगाई ने देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी, जो प्रति व्यक्ति सिर्फ़ 30 से 40 रुपये रोज़ाना पर गुज़ारा करती है, की कमर तोड़ दी है. देश के क़रीब 50 करोड़ असंगठित मज़दूरों महँगाई की मार झेल रही है. शहरों में करोड़ों मज़दूर उद्योगों में 10-10, 12-12 घण्टे काम करके 8000 से 12000 रुपये महीना कमा पाते हैं. इसमें से भी मालिक बात-बात पर पैसे काट लेता है. लगभग एक तिहाई से लेकर आधी मज़दूरी मकान के किराये, बिजली, बस भाड़े आदि में चली जाती है. बची कमाई से किसी तरह वह अपना और परिवार का पेट भर पाता है. दालें तो थाली से  पहले ही ग़ायब हो चुकी थीं, अब आलू-प्याज़-टमाटर-साग जैसी सब्ज़ियाँ भी खा पाना उनके लिए मुश्किल हो गया है.

महँगाई के कारण परिवार की आमदनी का 74% खाने-पीने परहो जाता है ख़र्च 

कुछ वर्ष पहले गुजरात के पाँच ज़िलों में ग़रीब परिवारों के बीच एक संस्था के सर्वेक्षण में पाया गया था कि महँगाई के कारण परिवार की आमदनी का 74% खाने-पीने पर ख़र्च हो जाता है. पहले जो परिवार सुबह नाश्ता, फिर दिन और रात का खाना खाते थे, उनमें से 60% अब दिन में सिर्फ़ दो बार खाते हैं. 57% लोग बहुत ज़रूरी होने पर ही डॉक्टर के पास जाते हैं. 40% परिवारों में चाय के लिए दूध का इस्तेमाल बन्द हो गया है. महंगाई के कारण बहुत से लोग वाहनों के बजाय कई किलोमीटर पैदल चलकर काम पर जाते हैं. आज ऐसी हालत देश के लगभग सभी राज्यों में है. लॉकडाउन के बाद से देश के करोड़ों मेहनतकशों पर मुसीबतों का पहाड़ और भी वज़नी हो गया है.

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