जेवीएम के निशाने पर सत्ता के बजाय विपक्ष क्यों ? 

जेवीएम के निशाने पर विपक्ष

झारखंड की राजनीतिक इतिहास में बहुत कम मौके आए हैं, जब चुनावी लोकतंत्र की उन परिस्थितियों को मौजूदा सत्ता समीकरण की राजनीति में उधेड़ कर रख देना चाहती है, जहाँ चुनावी लोकतंत्र को लेकर बची-खुचे भ्रम भी ख़त्म जाए। विचारधारा नाम की कोई चीज होती यह भी बेईमानी लगने लगे। आपको यह समझ आने लगे कि राजनीतिक ताक़त का मतलब केवल सत्ता पाना है। सत्ता पाने के बाद या तो आप अपना विस्तार कर सकते है या आप ख़त्म हो सकते हैं।

मौजूदा वक़्त में भी झारखंड विधानसभा चुनाव की कई धूरीयों में से एक बाबूलाल मरांडी, जिन्होंने जवानी के कई बेहतरीन वर्ष हाफ पेंट पहन व कंधे पर झोला उठा प्रचारक की भूमिका में संघ को दिए हैं। इन्होंने अपनी अलग पार्टी जेवीएम तो बनायी, पूरे पाँच वर्ष भाजपा को पानी पी कर कोसे भी, लेकिन जब चुनाव का वक़्त आया तो खुद को गठबंधन से अलग कर लिया। 

आंकड़े बताते हैं कि भाजपा को झारखंड में जब भी सत्ता-सरकार चलाने में दिक्कतें आई, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी तारणहार की भांति जेवीएम भाजपा को सहयोग करती रही है। चाहे राज्यसभा चुनाव हो, उप चुनाव हों या फिर रघुवर सरकार की वैशाखी बने इनके छह विधायक हों, इसी आरोप के पुष्टि करते है। 

जेवीएम को लगता है कि सत्ता के साथ उसका विस्तार

यह सवाल इसलिए और भी गहरा हो जाता है जब मौजूदा वक़्त में जेवीएम के मुख्य निशाने पर सत्ता नहीं बल्कि विपक्ष होता है। इनके पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं के भाषणों से यह आभास होने लगता है, इन्हें मूल मंत्र के बजाय साफ़ निर्देश दिया गया हो कि उनके भाषण में सत्ता व उसके नेता-मंत्री का जिक्र न हो। यह सत्ता के प्रति प्रतिबद्धता नहीं तो और क्या हो सकता है।

मसलन, मौजूदा दौर में जब आजसू जैसे दल को शिवसेना के भांति लगने लगता है कि वह भाजपा के साथ रह ख़त्म हो रही है। तब जेवीएम लगाता है कि यदि ये सत्ता के खिलाफ गए तो इनकी राजनीतिक हस्ती मिटा दी जायेगी और सत्ता के साथ गए तो इनका विस्तार हो सकता है। बहरहाल, यह साफ़ संकेत है कि आने वाले वक़्त में संकेत साफ़ है कि फिर से अप्रत्यक्ष तौर पर विधायक भाजपा द्वारा खरीदे जा सकते है या फिर पूरा दल समर्थन कर भाजपा को फिर से सत्ता में काबिज कर सकते हैं।

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