कर्माओं व धर्माओ जंगलों से निकाल फैंकने की स्थिति में क्या प्रकृति बचेगी?

कर्माओं व धर्माओ को झारखण्ड के जंगलों से निकाल फैंकने पर क्या प्रकृति बचेगी?

भादों मास के एकादशी में झारखण्ड, छत्तीसगढ़, समेत  देश-विदेश में पूरे मनाये जाने वाला लोक कर्मा का सीधा संबंध प्राकृतिक व मानव के बीच अदृश्य डोर से है। प्रागेतिहासिक काल से हमारे समाज के कृषक व तमाम प्राकृतिक के गोद में बसने वाले पर्वों के माध्यम से अपने भावों को विभिन्न तरीके से व्यक्त करते आयी हैं। उनमें से ‘कर्मा’ भारत की पर्व मध्यवर्ती जनजातियों द्वारा मनाया जाने वाला लोकपर्व है। इस अवसर पर आदिवासी कर्मवृक्ष या उसके शाखा को घर के आंगन में रोपते हैं , इसके अंकुरित होने के ख़ुशी में लोग इसके चक्कर लगाते हुए एक विशेष प्रकार ला नृत्य करते हैं -जिसे कर्मा नृत्य कहा जाता।

कहते हैं कि कर्मा व धर्मा दो बहुत मेहनती व दयावान भाई थे, बाद में कर्मा का ब्याह हो जाता, परन्तु उसकी पत्नी क्रूर विचारों वाली निकलती है। वह इतनी क्रूर थी कि माड़ ज़मीन पर फेंक देती थी जिससे छोटे पौधे मर जाते थे। इससे कर्मा को बहुत दुःख हुआ और वह इससे नाराज़ हो घर छोड़ चला गया, जिससे वहां के लोग दुखी रहने लगे। धर्मा से लोगों की परेशानी देखी नहीं गयी और वह अपने भाई को ढूंढने निकल पड़ा। रास्ते में उसे प्यास लगी, वह एक नदी के पास पहुँचा, लेकिन वह भी सुखी पड़ी थी। नदी ने धर्मा से कहा की जबसे कर्मा यहाँ से गया हैं, हमारा कर्म फुट गया है। आगे वह जहाँ से भी गुजरा पेड़-पौधे-जानवर सभी ने यही शिकायत की।

धर्मा को आखिरकार रेगिस्तान के बीच कर्मा मिला, उसने देखा कि कर्मा के शरीर पर धुप व तेज गर्मी से फोड़े निकल आए थे, वह परेशान था। धर्मा ने कर्मा से आग्रह किया कि घर वापस चले, तो कर्मा ने कहा कि मै उसके पास फिर कैसे जाऊँ जो जमीं पर माङ फेक देती है। तब धर्म ने वचन दिया कि आज के बाद कोई भी माड़ ज़मीन पर नहीं फेंकेगा। फिर दोनों भाई वापस घर की ओर चल पड़े। जैसे-जैसे वे घर के तरफ बढने लगे वहां रौनक-हरियाली वापस लौटने लगी। पुनः इलाके में खुशाली लौट आई और सभी आनंद से रहने लगे। कहते हैं, उसे ही याद कर कर्मा पर्व मनाया जाता है ।

बहरहाल, ऐसे कर्माओं व धर्माओ को यह सरकार यहाँ से निकाल फेंकना चाहती है -क्या प्रकृति बचेगी- एक सवाल?

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