एनएमसी विधेयक में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की बल्ले-बल्ले 

एनएमसी विधेयक जब क़ानून बन जायेगा तब –

भारतीय चिकित्सा परिषद क़ानून 1956 रद्द हो जायेगा।

उसकी जगह एक राष्ट्रीय मेडिकल आयोग (एनएमसी) गठित होगा जिसमें 25 सदस्य होंगे। इनमें से सिर्फ़ 5 का चुनाव होगा और बाक़ी 20 सरकार द्वारा मनोनित होंगे।

प्राइवेट कॉलेजों की 50 प्रतिशत सीटों की फ़ीस सरकारी नियंत्रण से बाहर होगी।

दुनिया के देशों मेडिकल शिक्षा का संचालन का काम स्वायत्त संस्था की होती है ताकि शिक्षा प्रणाली व उसकी गुणवत्ता अव्वल दर्जे की सुनिश्चित हो सके। भारत में भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) यही काम करती है। भारत सरकार ने 1956 में इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट को दोबारा रिवाइज करते हुए मेडिकल काउंसिल का पुनर्गठन किया। तब से अब तक यह कौंसिल मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करती आ रही है। मेडिकल काउंसिल पूरे देश में मेडिकल स्नातक शिक्षा व परास्नातक मेडिकल शिक्षा के लिए एक समान मानक तय कर लागू करती है। यही नहीं यह विदेशी चिकित्सा कोर्सों को देश में अनुमति प्रदान करते हुए यहाँ के मेडिकल कॉलेजों को मान्यता प्रदान करती है, क्वालिफ़ाइड डॉक्टरों को रजिस्टर कर उनकी डायरेक्टरी तैयार करती है।

भारत के मेडिकल एजुकेशन का ढाँचा को ख़राब बताते हुए सरकार ने एमसीआई एक्ट को निरस्त कर एक राष्ट्रीय मेडिकल आयोग (एनएमसी) का गठन करने के लिए 2017 में राष्ट्रीय मेडिकल आयोग विधेयक लोकसभा में पेश किया था। यह आयोग प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की 40 प्रतिशत सीटों की फ़ीस को भी रेगुलेट करने वाला था। साथ ही इसमें 25 सदस्य होने थे जिनकी नियुक्ति सरकार द्वारा गठित एक सर्च कमेटी की सिफ़ारिश होनी थी। नीति आयोग की कमेटी का कहना था कि एमसीआई शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं कर रही है, बल्कि यह सुधार में बाधक है। एमसीआई कॉलेजों का निरीक्षण कर तय मानकों के अनुसार मान्यता प्रदान करती है या फिर मान्यता रद्द करती है। सिर्फ़ इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान केन्द्रित करती है शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान ही नहीं देती। मतलब नीति आयोग यहाँ गुणवत्ता और इन्फ्रास्ट्रक्चर के अन्तर्सम्बन्धों को जानबूझकर अनदेखी कर रहा था।

जबकि इन्फ्रास्ट्रक्चर के दायरे में, लेबोरेटरी, आपरेशन थिएटर, स्वास्थ्य और ट्रेनिंग केन्द्र, पढ़ाने के लेक्चर हाल, सेमिनार हाल, छात्रों के बैठने की जगहें, होस्टल, फ़ील्ड प्रैक्टिस एरिया, ओपीडी, वार्ड, हर विभाग में शिक्षकों और डॉक्टरों की एक न्यूनतम संख्या आदि तमाम चीज़ें आती हैं। अगर यह सुविधाएँ न होगी तो मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता का परिभाषा क्या है ? यह समझ से परे है। अब तक काउंसिल व्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद तय मानकों पर खरा न उतरने वाले कॉलेजों की मान्यता रद्द करती आयी है। जो नीति आयोग नाजायज शक्ति मानती है। इसलिए नीति आयोग मान्यता रद्द के जगह रेटिंग सिस्टम लागू करना चाहती है। लेकिन गले से न उतरने वाली बात यह है कि यह सरकार ख़राब मेडिकल कॉलेज की मान्यता रद्द करने की बजाय रेटिंग सिस्टम लागू कर जान से क्यों खेलना चाहती है?और इससे भ्रष्टाचार कैसे कम होगा? रिश्वत तो अच्छी रेटिंग के लिए भी ली जा सकती है।

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