देश के संघीय ढ़ांच को चोट पहुँचते हुए भाजपा ने कोरोना आपदा को अवसर में बदला!

देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान राष्ट्र के नाम संदेश में मोदी ने “आपदा को अवसर” में बदलने का संकेत जुमले के रूप में दे दिया था। वर्ग विभाजित समाज में हर एक नारा किसी न किसी वर्ग के हितों को साधता ही है। ‘इण्डियन चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स’ के एक विशेष कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए मोदी ने साफ़-साफ़ शब्दों में कहा कि ‘पीपुल्स’, ‘प्लैनेट’ और ‘प्रॉफ़िट’ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मतलब साफ़ था कि कोरोना आपदा का इस्तेमाल, पूँजीपतियों के लिए अवसर के रूप में किया जायेगा। यह उदाहरण श्रम कानूनों को किनारे लगाते हुए निजीकरण की रफ़्तार की तेजी के रूप में देखी जा सकती है।

2014 के बाद से ही आरएसएस समय-समय पर अपने सामाजिक आधार को तेजी से परखता रहा है। कोरोना महामारी के संकटपूर्ण समय में जब अन्य देश व्यापक टेस्टिंग, क्वारंटाइन, ट्रीटमेंट और कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग कर रही थी, तो मोदी सत्ता व उसके अनुषंगी दल इस महामारी में थाली-ताली बजवाकर, मोमबत्ती जलवाकर सामाजिक प्रयोग कर रही थी। साथ ही जनता को मदद के हाथ पहुंचाने वाले गैर भाजपा शासित राज्यों के पर भी क़तर रही थी जिसकी आवाज हेमंत सोरेन जैसे मुख्यमंत्री उठाते रहे हैं। जनता के इस सामूहिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण से आरएसएस एक हद तक पता लगाने में सफल हुई कि समाज का कितना बड़ा हिस्सा विज्ञान से परे फ़ासीवादी प्रचार के दायरे में आ चुका है। 

प्राइवेट अस्पताल इस संकट दौर में मुनाफ़ा बटोरने में रही कामयाब 

देश की जर्जर सरकारी चिकित्सा तंत्र जो निजीकरण की भेंट चढ़ चुका थी, वह विस्फोटक रुख़ अख़्तियार कर रहे कोरोना के संकट को झेल पाने में असमर्थ रही। नतीजतन, प्राइवेट अस्पताल इस संकट में भी मुनाफ़ा बटोरने में कामयाब रही। बिना किसी पूर्वसूचना और तैयारी के अनियोजित लॉकडाउन के कारण, करोड़ों मज़दूर बेरोजगार हुए और भूख के कारण जान जोख़िम में डालकर सड़कों को पैदल नापते हुए अपने घरों की ओर चलने को मजबूर हुए। जिसमे कई सड़क हादसे, भूख और थकान के कारण मौत के शिकार हुए। सरकारी संस्थाएं भी अब मनाती है कि देश ‘कम्युनिटी ट्रांसफर’ के स्टेज में पहुँच चुका है। मोदी सरकार अपने इस नकारापन को छुपाने के लिए तमाम प्रपंच करने में जुटी हुई है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को धत्ता बताते हुए राजनीतिक विरोधियों को लगाए गए ठिकाने 

एक तरफ इस महामारी के दौर में जब सुप्रीम कोर्ट राज्य और केन्द्र सरकार को निर्देश दे रही थी कि “जेल में भीड़ कम करने के लिए वृद्ध व बीमार क़ैदियों को पैरोल या ज़मानत पर छोड़ना चाहिए, तो मोदी सत्ता इस आपदा को सीएए, एनपीआर और एनआरसी विरोधी आन्दोलन में सक्रिय मानव अधिकार व अन्य कार्यकर्ताओं को फ़र्ज़ी मुक़दमेबाज़ी कर जेल में डालने के मौक़े के रूप में भुना रही थी। ‘नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी’ की रिपोर्ट के मुताबिक़ लॉकडाउन के दौरान 16 मई तक 42,259 क़ैदियों को रिहा किया गया, लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसमें से एक भी राजनीतिक क़ैदी नहीं थे। उल्टे इस दौरान गम्भीर बीमारियों से ग्रसित, वृद्ध व विकलांग जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं क़ी ज़मानत याचिका बार-बार खारिज़ हुए।

श्रम कानूनों को ख़त्म करने पर क्यों तुली मोदी सरकार

कोरोना महामारी में अनियोजित लॉकडाउन की वजह से मजदूरों से रोजगार छिन जाने के बाद देश भर के मजदूरों के सामने जीविका का संकट है। एक तरफ 20 लाख करोड़ के पैकेज, सबको राशन देने की घोषणा हवा-हवाई साबित हुई है। ऐसे समय में मोदी सरकार का ‘आत्मनिर्भर’का पाठ ऐसे में मजदूरों के सामने दो विकल्प छोड़े हैं  या तो वह भूख से मरे या कोरोना से। इस कठिन समय में केंद्र व भाजपा शासित राज्य बचे-खुचे श्रम कानूनों को ख़त्म करने पर तुली है। काम के घण्टे को भी आठ से बढ़ाकर बारह करने पर जोर है। जो साफ़ दर्शाता है कि मोदी सत्ता खुले तौर पर पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचाने की दिशा में तानाशाही तरीके से चल पड़ी है। 

विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त के लिए धन जुटाने के लिए आपदा को अवसर के रूप में किया गया इस्तेमाल 

इस आपदा को भाजपा ने विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त के लिए धन जुटाने के अवसर के रूप में भी इस्तेमाल किया है। नेशनल रिलीफ़ फ़ण्ड होने के बावजूद कोरोना से लड़ने के नाम पर पीएम केयर्स फ़ण्ड बनाया गया। जिसमे करोड़ों लोगों के साथ पब्लिक सेक्टर की 38 कम्पनियों ने भी कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत 2,018 करोड़ रुपये दिये। पीएम केयर्स फ़ण्ड को हिसाब देने की किसी भी बाध्यता से मुक्त कर दिया है। इसी तरह इस आपदा को सरकार नौकरियों को ख़त्म करने, नयी शिक्षा नीति के ज़रिए पाठ्यक्रम में बदलाव कर आरएसएस का पाठ्यक्रम लागू करते हुए देशी-विदेशी पूँजी के लिए दरवाजे खोल दिए।  

और देश के प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेशी लुटेरों के हवाले करने के अवसर के रूप में जमकर इस्तेमाल कर रही है। स्पष्ट है कि कोविड-19 की आपदा भाजपा और संघ परिवार के लिए अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे को आगे बढ़ाने का अवसर है। लेकिन इतना ज़रूर है फ़ासिस्टों ने जितने नंगे तरीक़े से इस आपदा को अवसर में बदलने की कोशिश की उससे इनका फ़ासीवादी चाल-चेहरा-चरित्र और भी उजागर हुआ है। यह जनता के लिए सबक़ लेने और इस फ़ासीवादी निज़ाम को ध्वस्त करने के लिए अपनी तैयारियाँ तेज़ करने का भी अवसर है।

आपदा को अवसर में बदलते हुए सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की मुहिम

‘देश नहीं बिकने दूँगा’ का जुमला फेकने वाली मोदी सरकार की गिद्ध निगाहें कोयला कम्पनियों, रेलवे, बीएसएनएल, एमटीएनएल जैसी बड़ी सार्वजनिक कम्पनियों पर लगी थीं। 1 जुलाई को रेलवे बोर्ड ने 109 मार्गों पर चलने वाली 151 गाड़ियों का परिचालन निजी हाथों में देने का टेण्डर जारी कर दिया। रेलवे निजीकरण के इस मॉडल में इनफ्रास्ट्रक्चर जैसे ट्रैक, सिगनल्स, ट्रेन ऑपरेशन तो अभी भी सार्वजनिक रहेगा लेकिन ट्रेन निजी होंगी। सरकार इस धूर्तता को नये-नये लच्छेदार शब्दों में पिरोकर परोस रही है। इसी तरह सरकार एमटीएनएल और बीएसएनएल की 37,500 करोड़ की ज़मीन और बिल्डिंगें बेचने जा रही है। जिसका सीधा फ़ायदा जिओ जैसी कम्पनियों को होगा। 

लॉकडाउन के बीच 18 जून को भाजपा सरकार ने 41 कोल ब्लॉक के वाणिज्यिक खनन यानी निजी कम्पनियों को खनन की अनुमति दे दी। अब इस फैसले के बाद निजी कम्पनियाँ निकाले गये कोयले का किसी भी रूप में इस्तेमाल करने के लिए आज़ाद हैं। 2014 में सत्ता आने के बाद 2015 में कोल माइन्स एक्ट में स्पेशल प्रोविज़न के जरिये निजी कम्पनियों का रास्ता साफ़ कर दिया। 2018 में कोकिंग कोल माइन्स एक्ट 1972 और कोल माइन्स एक्ट 1973 को भंग कर मोदी सरकार ने प्राइवेट खिलाड़ियों को 25 फ़ीसदी कोयले को बेचने का छूट दे दी। कोयला खनन में 100% एफ़डीआई पहले से ही लागू है, यानी खनन के क्षेत्र में देशी-विदेशी पूँजी को मज़दूरों की मेहनत लूटने की खुली छूट दे दी गयी है। 

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