संघ नेता बाबूलाल मरांडी की नागपुरी जुबान में आदिवासी को जन्म से हिंदू कहना धर्मकोड की लम्बी लड़ाई को कमजोर करने की साजिश
रांची : झारखंड के कैनवास में बाबूलाल मरांडी की जुबान नागपुर हो चली है। दोबारा हाफ पेंट धारण के मद्देनजर जब एक झारखंडी मानसिकता कहे कि आदिवासी जन्म से ही हिंदू हैं। तो उस समुदाय के समझ का नया उभार इस सच के रूप में हो सकता है कि उसकी परम्परा, अस्मिता व संघर्ष की बोली लगायी जा चुकी है। वह भी ठीक ऐसे वक़्त में जब सरना कोड की लड़ाई केंद्र से जुंग भर की दूरी पर हो। तो सामुदायिक मान्यता पर आश्चर्य क्यों?
अस्तित्व के मद्देनजर जिस समुदाय का लम्बा जंग खुद को हिंदू न मानने की पृष्ठभूमि का इतिहास लिए हो। जिसकी लड़ाई केवल उनकी संख्या की गिनती भर की हो। और इसके एवज में उनकी पीठ भाजपाई पुलिसिया डंडे के दाग से भरे हों। जिसका अक्स लाखों आदिवासियों की भावनाओं से खिलवाड़ कर राजनीतिक रोटियां सेकने का सच लिए हो। वहां बाबूलाल मरांडी का आदिवासियों को हिंदू बताना, उन्हें विभीषण की श्रेणी में ला खड़ा कर सकता है?
अवसरवादी राजनीति झंडाबरदार का स्पष्ट नमूना
मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में आदिवासी समुदाय अपनी पहचान मान सम्मान के साथ विस्तार पा रहा है। वर्षों की पृथक धर्मकोड की मांग झारखंड विधानसभा से पार पाते हुए केंद्र की दहलीज पर खड़ा है। इससे पहल कि आदिवासी समुदाय केंद्र से लड़ने की साहस जुटाए। बाबूलाल मरांडी जैसे नामचीन नेता का लड़ाई को कमजोर बनाना। अवसरवादी राजनीति के झंडाबरदार के तौर पर स्पष्ट उदाहरण हो सकता है।
जनता के समझ का उभार इस रूप में भी हो सकता है। जहाँ वह मानने में संकोच न करे कि भाजपा से अलग हो झारखंड विकास मोर्चा का गठन, राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के मद्देनजर, आदिवासी समुदाय को छीन करने का सच भर है। और सफलता न मिलने की खीज में हताश हो आरएसएस उसे वापस घर लौटने का आदेश दिया। इतिहास के अक्षर बताते हैं कि डूबती राजनीति हमेशा मझधार में ऐसे ही बय़ानों का प्रयोग करती है। और अंग्रेज काल भी जब आरएसएस विचारधारा की यही सच लिए हो। तो जनता की समझ को सही भी मानी जा सकती है।