छात्र भाजपा के लिए केवल एक राजनीतिक टूल
जेपी के 75 के आंदोलन के पीछे चूँकि यही खड़े थे , जिसके कारण छात्रों ने डिग्री गँवाई, नौकरी गंवाई। 89 में वीपी के पीछे खड़े होकर मंडल को कमण्डल में ऐसा डाला कि छात्रों के डिग्री पर आरक्षण भारी हो गया। यही लोग 2013 में अन्ना आंदोलन को हड़प सत्ता में आए और 2015 में ही छात्रों को रोज़गार का सियासी पाठ पढ़ा दिया। पहली बार खुले तौर पर छात्रों को यह महसूस हुआ कि हमारी डिग्री बेकाम हुई और पकौड़े तलने के दिन आए। मतलब 2014 में छात्रों के डिग्री पर अच्छे दिन भारी पड़ गए।
यह सवाल छात्रों को तुरंत ही डराने लगा, क्योंकि नरेन्द्र मोदी के भाषणों से प्रभावित छात्रों के बीच एडमिशन ना हो पाने का संकट उभने लगा, तो हर किसी ने पीएम मोदी को ही याद किया। कइयों ने पीएमओ को मेल किये तो कईयों ने सोशल मीडिया का सहारा लिया। तो कही राजनीतिक खेल की वजह से नौकरी ना मिल पाने वाले छात्रों ने भी अपने अपने तरीके से पीएम को ही याद किया। क्योंकि राजनीतिक सत्ता के भीतर के मवाद को निकालने की कसम मोदी ने पीएम पद के लिये चुनावी प्रचार के वक्त लिया था।
तीसरी तरफ कतार मुफलिसी में खोये झारखंड जैसे राज्यों के छात्र जो सत्ता के विस्तार के साथ अपना विस्तार भी देख रहे थे। तो झारखंड में सीएम बनते ही जो छात्र किसी परीक्षा की तैयारी के तरह ही राजनीतिक संघर्ष कर रहे थे, उन्हें दरकिनार कर सबसे पहले बाहरी राज्यों के कैडर को नौकरी पर लगा अपनी प्राथमिकता दर्शायी। जो अब महीने की तयशुदा रकम पा कर झारखंडी सरकार की राजनीतिक नौकरी कर रहे हैं।
छात्रों की दुर्दशा पर सुदेश क्यों चुप रहे
यानी जो काम झारखंडी प्रोफेशनल के हाथों में होना चाहिये था, जिस काम के लिये सत्ता को यहाँ के पढ़े लिखे छात्रों के बीच समानता के साथ नौकरी बाँटी जानी चाहिये, वह रोज़गार अपनी राजनीति साधने के लिए बाहरी कैडरों में बांट दिया गया। जबकि सत्ता के साथ खड़े सुदेश महतो जो झारखंडी स्वाभिमान की बात करते है, चंद सिक्कों के लिए चुप्पी साधे रहे। आज कहते हैं की वे सत्ता के विचारधारा से सहमत नहीं हैं। साथ ही जेवीएम विचारधारा से ओत प्रोत बिके विधायकों की हालत कमोवेश यही रही।
मसलन, भाजपा ने इतिहास से लेकर वर्तमान तक साबित किया कि युवा छात्र इनके लिए केवल एक राजनीतिक टूल या सत्ता पाने की सीढ़ी के अतिरिक्त कुछ नहीं…।