भाजपा के आगे सुदेश का कद हुआ और बौना

भाजपा के आगे सुदेश हुआ और बौना

‘दीवार’ फिल्म का वह दृश्य याद कीजिये, जिसमें मंदिर में मां की पूजा के बाद अमिताभ और शशिकपूर दो अलग अलग रास्तों पर नौकरी के लिये निकल जाते हैं। अमिताभ एक ऐसे रास्ते चल पड़ता है, जहां पैसा है, सुविधा है। वहीँ दूसरी तरफ उसी का भाई शशि कपूर के ज़िम्मेदारी से सामाजिक रास्ते का चयन करते हैं। न्याय के खिलाफ शशिकपूर की पहल को मां की हिम्मत मिलती है। अमिताभ परास्त होता है लेकिन उसका दम उसी मां की गोद में निकलता है, जिसकी हिम्मत से शशिकपूर को जीत मिलती है।

आजसू और झामुमो को लेकर जनता के डायलॉग भी कुछ ऐसा ही एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें हेमंत सोरेन और सुदेश महतो के चारित्रिक चित्रण अलग-अलग हैं। सुदेश उस राह पर निकले हैं जहाँ झारखंड की अस्मिता पर सवालिया निशान लगते हैं। वहीं, हेमंत सोरेन राज्य के भीतर शिक्षा, बेरोज़गारी, जल-जंगल-ज़मीन जैसे मुद्दे पर ज़िम्मेदारी के साथ सत्ता से दो-दो हाथ करते दिखते हैं। एक सत्ता मोह से वसीभूत हैं तो दूसरा न्याय और सुशासन का मेल वाला राजनीति चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। जो झारखंड की धरती हेमंत को हिम्मत दे रही हैं वही धरती सुदेश को कोस रही है।

भाजपा के आगे सुदेश हुआ और बौना, दिल्ली से खाली हाथ वापिस लौटे सुदेश

मसलन, सुदेश जी का दिल्ली से वापस झारखंड लौट आना इसी बात का परिचायक हो सकता है कि बीजेपी के आगे इनका कद काफी बोना हो गया है। सत्ता में रहते हुए किसी झारखंडी राजनीतिक दल का सीट बढ़ने के बजाय घट जाए और गठबंधन बरकरार रहे, तो इसके क्या मायने हो सकते हैं, कोई अबोध भी समझ सकता है। जबकि यूपीए के महागठबंधन पर चुटकी लेने वाली एनडीए का भी सीट बँटवारे को लेकर चुप्पी साधे रखना उनके सहयोगी दलों के स्वाभिमान पर सवाल ज़रूर खड़े करते दिखती है। साथ ही स्वाभिमानी सुदेश का गठनबंधन के सम्बन्ध में चप्पी साधे रहना सहमती के सिवाय और क्या इशारा कर सकता है।

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