बाबा साहेब अंबेडकर जीवनभर शिक्षा प्रेम की अलख भी जगाते रहे

सैनिक स्कूल में शिक्षा पाये डां बाबा साहेब अंबेडकर जीवनभर कहते रहे, बगैर शिक्षा के सारी लड़ाई बेमानी है। बाबा साहेब अंबेडकर को पता था कि उन्हें शिक्षा इसलिये मिल गयी क्योंकि वह एक सैनिक के बेटे थे। और ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नियम था कि सेना से जुड़ा कोई अधिकारी हो या कर्मचारी उनके बच्चों को अनिवार्य रुप से सैनिक स्कूल में शिक्षा दी जायेगी। आंबेडकर के पिता रामजी सकपाल सैनिक स्कूल में हेडमास्टर थे और रामजी सकपाल के पिता मालोंजी सकपाल सेना में थे।

हालांकि 1892 में महारो के सेना में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इस कडी में आंबेडकर तो शिक्षा पा गये मगर शिक्षा प्रेम की यह लड़ाई मौजूदा सरकार में दलित-आदिवासी-मूलवासी संघर्ष तले इस कदर धराशाही कर दी गयी कि रोहित वेमुला सरीखे विद्यार्थियों को मौत के दहलीज तक ले गयी। जाहिर है मोदी युग की थ्योरी तले दलित-आदिवासी-मूलवासी के संघर्ष को किसी भी विधा से कुचलना ही सरकार की एक मात्र रणनीति रही, यही सही है।

जाहिर है इन हालातों के बीच बाबा साहेब अंबेडकर दिवस में कोई कैसे उठकर कह सकता है कि दलित वोटर मौजूदा सरकार के किसी नुमाइन्दों को चुनेगा। या फिर साहेब द्वारा खड़ी की गयी परिस्थितियों के बीच वोटर धार्मिक उन्माद के मुद्दों के आसरे उनके नुमाइन्दों को वोट देगा। क्योंकि आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राज्य उत्तरप्रदेश व उस जैसी अन्य राज्यों की माली हालत इतनी बदतर है कि चुनाव के वक्त या चुनाव के बाद की सियासी सौदेबाजी में खोने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। रोज़गार दफ्तर में करोड़ों युवा वोटरो के नाम दर्ज हैं। करोड़ों वोटर मजदूर हैं, जिनकी रोजी रोटी चले कैसे इसके लिये कोई नीति कोई बजट सरकार के पास नहीं है। इसलिये आंबेडकर दिवस के मौके पर अगर लोकतंत्र के गीत गाने से पहले दलित-आदिवासी-मूलवासी वोटरों को समझ लेना होगा कि, देश को दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र के तमगे को बनाये रखने के लिए उनके सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के साथ कौन खड़ी है।

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