भाजपा के शासनकाल में सबसे अधिक ठगे गए झारखंड के मूलवासी !

क्यों भाजपा के शासनकाल  ठगे जाते रहें हैं मूलवासी ?    – पीसी महतो (चक्रधरपुर) की कलम से…

झारखंड में बहुमत वाली भाजपा सरकार से सबसे अधिक नुकसान यहां के मूलवासियों को हुआ है। झारखंड में तीन प्रकार की आबादी है- आदिवासी, मूलवासी और प्रवासी। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार झारखंड में निवास करने वाली आदिवासी प्रजातियों को पर्याप्त आरक्षण की व्यवस्था उनके जनसंख्या के अनुरूप प्रदान की गई है। साथ ही दलितों के लिए भी उनके संख्या के अनुरूप पर्याप्त अवसर सुरक्षित किए गए हैं, परंतु मूलवासियों के हितों की रक्षा अब तक नहीं हो पाई है जिस वजह से राज्य के संसाधनों में इस बड़ी आबादी का हिस्सेदारी अब तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है। राज्य गठन के बाद से अब तक भाजपा के शासनकाल सबसे अधिक समय तक रही है, परंतु भाजपा ने इस बड़ी आबादी के साथ हमेशा उपेक्षा-पूर्ण रवैया अपनाए रखा, नतीजा यह हुआ कि मूलवासियों के हिस्से की नौकरियों में बाहरियों ने आसानी से सेंधमारी कर ली।

क्यों भाजपा के शासनकाल में यहाँ के मूलवासी को समूह नहीं समझा गया 

झारखंड भाजपा में जो थिंक टैंक काम करता है उसके नजर में यहाँ के मूलवासी कोई समूह नहीं है। भाजपा के नेता भी इस शब्द का प्रयोग कभी नहीं करते हैं क्योंकि मूलवासियों की आबादी झारखंड में सर्वाधिक है और इन्हें अलग से तवज्जो देने पर प्रवासी किस्म के जो लोग झारखंड में निवास कर रहे हैं उन्हें अधिकार देने में कठिनाई होगी। अर्जुन मुंडा के कार्यकाल में स्थानीय नीति को परिभाषित करने की हिम्मत नहीं जुटाई गई। जिस वजह से नियुक्तियों में 50% सीटें अनारक्षित रखकर भारतवर्ष के लोगों के लिए खुला रखा गया। झारखंड बीजेपी में बाहरियों का दबाव हमेशा बना रहता है, इसीलिए अर्जुन मुंडा ने 50% सीट बाहरियों के लिए खुला छोड़ रखा था। उस समय भी बाहरियों की नियुक्ति हुई हैं, लेकिन अधिक मात्रा में नियुक्तियां नहीं होने के कारण इस पर किसी का ध्यान नहीं गया।

अब सोचने वाली बात यह है कि जब इस राज्य में स्थानीय नीति (भले ही नीति आदिवासी मूलवासियों के विरुद्ध हो) परिभाषित हो गई है, तो फिर 50% सीटों को पूरे भारतवर्ष के अभ्यर्थियों  लिए खुला छोड़ देने का क्या मतलब? यह अपने आप में एक विचित्र प्रयोग है, जो केवल और केवल झारखंड में किया जा रहा है।

राज्य में अगर भाजपा की सरकार रही तो मुख्यमंत्री कोई भी रहे राज्य के नियुक्तियों में 50% बाहरियों की हिस्सेदारी हमेशा सुनिश्चित रहेगी। यह बात को झारखंड के मूलवासियों को भली भांति समझ लेने की जरूरत है। झारखंड मुक्ति मोर्चा को केवल आदिवासियों की पार्टी कह कर यहां के मूलवासियों को भाजपा बरगलाती आयी है और अपने पक्ष में वोट करवाती आयी हैं। बाद में फिर मूलवासियों के ही हिस्सेदारी में सेंध मार बाहरियों का काम आसान करती है। झारखंड गठन के बाद एक लंबे अरसे तक यहां के मूलवासी इस बात को शायद नहीं समझ पाए थे, परंतु  भाजपा के शासनकाल (रघुवर दास) में मूलवासी विरोधी नीतियों के लागू होने के उपरांत अब लोग इस बात को बखूबी समझने चुके हैं। वास्तविकता तो यह है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा ही एक ऐसी पार्टी है जो झारखंड के आदिवासी और मूलवासियों को समेट कर झारखंड के नव निर्माण के प्रति कृत संकल्प है।

आज इस बात को समझने की आवश्यकता है कि भाजपा की राजनीति बीस फ़ीसदी प्रवासी समूह के लिए केंद्रित है, जो झारखंड में रोजी रोजगार की तलाश में आए हुए हैं। इनके हितों की रक्षा के लिए भाजपा कुछ भी करने को तैयार है, जैसा कि रघुवर दास कर रहे हैं। अभी तो केवल प्लस टू शिक्षकों की नियुक्तियों में ही यह मामला प्रकाश में आया है। आगे हाईस्कूल शिक्षक नियुक्ति में भी गैर अनुसूचित जिलों में बाहरियों को अवसर देने का मामला देखने को मिलेगा।इसके पूर्व दरोगा नियुक्ति में भी झारखंड राज्य के बाहर के अभ्यर्थियों को 35% तक अवसर प्रदान किए गए हैैं।

ऐसे में झारखंड के मूलवासियों को झारखंड गठन के औचित्य पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है तभी यह समझ में आएगा कि आखिर झारखंड क्यों और किसके लिए?

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