स्वास्थ्य व्यवस्था से खिलवाड़ करती रघुबर सरकार

झारखण्ड राज्य में रघुबर सरकार ने सत्ता में आने के बाद स्वास्थ्य-नीति में संशोधन किया और कहा कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर अधिक पैसा खर्च करेगी। स्वास्थ्य व्यवस्था को पुनः संगठित करने की भी बात कही थी, परन्तु राज्य के #स्वास्थ्य क्षेत्र में बदलाव होने के बजाय हाल और बुरा हो गया है। न तो इस क्षेत्र को अधिक पैसे दिये गये और न ही व्यवस्था को दुरुस्त बनाने के लिए कोई ठोस प्रयास किया गया। बल्कि अपनी कथनी के उलट निजी #स्वास्थ्य क्षेत्र को तेज़ रफ़्तार से बढ़ाया गया। लेकिन गंभीर सवाल यह है कि सरकार के पास कुल पंजीकृत ऐलोपैथिक डॉक्टरों का महज़ 11 फीसदी ही सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में कार्यरत है। और यही इस राज्य के ग़रीबों की बीमारियों पर होने वाले भारी खर्च की मुख्य वजह है। अब यह समझ से परे है कि बीमार का इलाज़ डॉक्टर करेगा या बीमा कंपनी! यह जनता को बताये बिना मोदी जी आरोग्य योजाना के तहत स्वास्थ्य बीमा को किसी संजीवनी बूटी के रूप में बांट कर चलते बने।

भाजपा के इस कदम से ऐसा प्रतीत होता है कि स्वास्थ्य के प्रति खुद को प्रतिबद्ध बताने वाली यह सरकार अपने ही वादों से एकदम मुक़र गयी है। स्वास्थ्य के ‘बुनियादी अधिकार’ और ‘#स्वास्थ्य सुविधाएँ’ सबको मुहैया कराने की जगह अब स्वास्थ्य-सुविधाओं को ”भरोसेमन्द” बनाने का नया जुमला उछाला गया है। इस सरकार का वक्तव्य है कि ‘स्वास्थ्य को बुनियादी अधिकार’ और ‘सबको सुविधाएँ’ सम्भव बनाने के लिए इनके पास व्यवस्था नहीं है। ऐसे में सवाल है कि व्यवस्था बनी क्यों नहीं और बनानी किसे थी? इस विषय पर रघुबर जी ने न तो कोई जवाब दिया है और न ही इनके पास कोई योजना है। मतलब साफ़ है कि स्वास्थ्य सुविधाओं को सुलभ बनाने के कार्य को नीतिगत और क़ानूनी रूप से ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है। साथ ही यह सरकार हर तरह की जवाबदेही से बचकर भाग निकली है। जबकि देश के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अनुसार जनता तक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुंचाना सरकार के मुख्य कर्तव्यों में से एक है।

अब रिपोर्टों के माध्यम से राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था की परिस्थितियों को समझते है। झारखण्ड के गिरिडीह जिले के सदर अस्पताल के नए मातृ एवं शिशु इकाई के भवन का उद्घाटन #स्वास्थ्य मंत्री  के द्वारा किए जाने और महिमा बखान करने के महज चंद दिनों के अंतराल में घटित घटने ने सारे दावे की पोल खोल कर रख दी है।

दरअसल, छतरो राय की गर्भवती पत्नी जोनिया देवी ने प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए मजबूरन अस्पताल के ओटी के सामने जमीन पर ही शिशु को जन्म दिया। फिर भी कोई डॉक्टर-नर्स उस माँ-बच्चे के बीच जुड़ी नाड़ी तक काटने नहीं आये। ना ही किसी ने बेड या स्ट्रेचर पर ही लिटाया। जबकि दूसरी रिपोर्ट राजधानी रांची की है। रिम्स के शिशु रोग विभाग के वार्ड में बिरहोर (संरक्षित जाति) परिवार के डेढ़ साल के बच्चे की मौत हो जाती है। उसका शव घंटों तक वार्ड में स्थित फोटोथेरेपी मशीन पर ही पड़ा रह जाता है। अति तो तब हो जाती है जब उसी अवस्था में उसी मशीन पर किसी अन्य बच्चे का इलाज भी कर दिया जाता है। क्या यह देख-पढ़ कर कहीं से भी लगता है इस प्रदेश की सरकार तनिक भी स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर गंभीर हो। और हेल्थ-बीमा रुपी संजीवनी बूटी रहने के बावजूद प्रदेश की हेल्थ की स्थिति दयनीय है।

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