रिम्स के फॉरेंसिक विभाग मृतकों के परिजनों से ऐंठ रहे हैं पैसे

 

हर देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे बुनियादी अधिकार होता है। यूँ तो देश के संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “कोई भी व्यक्ति को उनके जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता”, लेकिन हम सभी जानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हज़ारों लोग अपनी जान गँवा देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 70 फ़ीसदी भारतीय अपनी आय का 70 फ़ीसदी हिस्सा दवाओं पर ख़र्च करते हैं। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ने हर मानवीय सेवा को बाज़ार के हवाले कर दिया है। जान-बूझकर जर्जर और खस्ताहाल की गयी स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के नाम पर सरकार निजीकरण व बाज़ारीकरण पर सिर्फ लोकलुभावन भाषण ही देते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दुनिया की महाशक्ति होने का दम्भ भरने वाली भारत सरकार अपनी जनता को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवायें तो उपलब्ध कराना दूर, मृतकों के परिजनों से सौदा करते फॉरेंसिक विभाग के अधिकारियों तक को रोक नहीं पाते! हाँ बिलकुल ठीक सुना आपने!

झारखण्ड के रिम्स अस्पताल के फॉरेंसिक विभाग का यह बिलकुल ताज़ा मामला है जहां कर्मचारी वीरेंद्र कुमार ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट मृतक के परिजनों को सौंपने के एवज में एक हजार रुपये रिश्वत की मांग की। हालांकि, मामला 200 रुपये में ही निपट गया। प्रदेश के एक दैनिक अखबार ने उस आरोपी क्लर्क से इस सम्बंध में बात की, तो आरोपी ने अपने उपर लगे आरोप को सिरे से ख़ारिज कर दिया, जबकि उस दैनिक के पास पूरे मामले का विडियो फुटेज उपलब्ध है। मामला यह है कि अप्रैल माह में रांची के कांके ग्राम निवासी छोटन राम की मौत सड़क हादसे में हो गयी थी। उनके शव का पोस्टमार्टम रांची के रिम्स अस्पताल में हुआ था और पोस्टमार्टम रिपोर्ट प्राप्त करने के लिए मृतक का पुत्र अजय उरांव कई दिनों से रिम्स के फॉरेंसिक विभाग का चक्कर लगा रहा था, लेकिन रिपोर्ट उसे नहीं मिल पा रहा था। आखिरकार 15 मई को फॉरेंसिक विभाग के क्लर्क वीरेंद्र कुमार ने दया दिखायी और काफ़ी नानुकुर के बाद 200 रुपये लेकर ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट मृतक के परिजन को सौंपी।

आपकी जानकारी के लिए बता दें, इन साहब पर पहले भी कई आरोप लगते रहे हैं, लगता है इनके ऐसे कारनामों से खुश हो अस्पताल प्रशासन ने पोस्टमार्टम, किचेन, टेंडर सहित रिम्स के कई महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी भी इन्हें सौंप चुके हैं। इसके अलावा वाहन के संचालन के लिए ईंधन का लेखाजोखा रखने का जिम्मा भी वीरेंद्र कुमार के ही पास था। तक़रीबन तीन माह पहले स्वास्थ्य मंत्री के क्षेत्र के एक मृतक को वाहन दिलाने में देरी हुई थी, काफी प्रयास के बाद ही उसे शव वाहन मिल पाया था। लेकिन, इस वाहन के चालक ने मृतक के परिजन से पैसे ऐंठ लिए, जबकि यह वाहन मंत्री की सिफारिश पर परिजन को नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाना था। मामला सामने आने के बाद मंत्री ने वीरेंद्र कुमार के खिलाफ जांच के आदेश दिये और इन्हें ई-टेंडर के जुड़े कार्य से हटा दिया गया था।

बहरहाल एक तरफ जहाँ झारखण्ड सरकार पूरे ढाँचे को प्राइवेट हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही है वहीँ दूसरी तरफ यही झारखण्ड प्रदेश की मौजूदा सरकार और स्वास्थ्य विभाग कारवाही के नाम मंचों पर अपने गाल भी बजाते है परन्तु इसका निष्कर्ष क्या निकलता है? न तो रिम्स की व्यवस्था ही सुधरने का नाम लेती है और ना ही यहाँ के कर्मचारियों की कार्य प्रणाली में कोई सुधार देखने को मिलता है। लगता है मानो किसी को किसी से कोई भय ही नहीं। ऐसे में सरकार की ईमानदारी और नीयत पर सवाल उठना लाजमी हो जाता है कि कहीं ना कहीं रिश्वत की मलाईयों को ये सभी मिल कर तो नहीं चखते!

यहां पहुंचनेवाले गरीब मरीज और उनके परिजन को यहाँ के कर्मचारी हर कदम पर प्रताड़ना के साथ-साथ आर्थिक दोहन भी करते हैं। जैसे खून उपलब्ध करवाने के नाम पर, जाँच कराने के नाम पर, महंगी दवाएं खपाने के एवज में, सरकारी एंबुलेंस दिलाने के नाम पर ये गरीब मरीजों का जमकर शोषण करते आ रहे हैं। बाहरी दलाल तो इसमें संलिप्त होते ही हैं, रिम्स के कर्मचारी भी इन दलालों के साथ मिलकर मोटी रकम एठते हैं। क्या झारखण्ड में भाजपा गठबंधन वाली सरकार की यही विकास का मॉडल है? कमेन्ट बॉक्स में अपनी राय जरूर दें।

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