आरएसएस का एक एजेंडा –आदिवासियों की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के साथ छेड़छाड़ 

आखिर क्यों कहा मोहन भागवत ने कि आरएसएस को आदिवासी क्षेत्रों में और मजबूत होने की जरूरत है? गांवों में गुप्त एजेंडा की तहत क्या जानकारी दी जाएगी

रांची : भाजपा खुद को आदिवासियों हितैषी बताती है और आरएसएस आदिवासियों को सनातन धर्म से जोड हिन्दू का चोला ओढ़ाने का प्रयास करती दिखती है. इन्हें आदिवासी इमोशन कार्ड इसलिए खेलना पड़ता है कि वह आदिवासियों को मनुवाद की जातियों के मकडजाल में जकड सके. जिससे वह झारखंड जैसे राज्य में, आदिवासियों के ज़मीनों के नीचे दबे प्रचुर सम्पदा की लूट खुले आम कर सके. साथ ही धुर्व्रीकरण राजनीति के अक्स में उसे झटके में 25-27 प्रतिशत आदिवासी वोट हिन्दू के रूप में, बिना ज़मीनी राजनीति किये एक मुस्त मिल जाए. देश में गुजरात, राजस्थान आदि राज्य इसके स्पष्ट उदाहरण हो सकते हैं. जहाँ आदिवासियों ने लगभग अपनी सांस्कृतिक पहचान खो हाशिए पर है. 

झारखंड में आदिवासियों को छलने के लिए भाजपा-संघ का षड्यंत्र 

देश के कुल खनिज पदार्थों का तक़रीबन 40 फ़ीसदी खनिज अकेले झारखण्ड में मौजूद है.  झारखण्ड के ज़मीन में दबे यहीं खनिज भाजपा-संघ के मकडजाल फैलाने का मुख्य कारण है. राज्य में  लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका खेत-खलिहानों पर निर्भर है, लेकिन भाजपा के रघुवर सरकार के दौर में ‘विकास’ का रास्ता खनिजों के दोहन और इस पर आधारित उद्योगों से निकलता था. और संघ ने इसमें बौद्धिक मदद पहुंचाई. उसने आदिवासियों को ‘बिरसा’ के सपनों से जोड़ विकास का सब्जबाग दिखाया, लेकिन असलियत में उस सपने का पंख ‘कॉरपोरेट’ से जुड़े थे.

भाजपा संघ का झारखंड के प्रति काली नीयत 

छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट के प्रावधानों में संशोधन करने में विफल रहने के बाद भूमि अर्जन पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर (हर्ज़ाना) और पारदर्शिता का अधिकार 2013 में संशोधन विधेयक – 2017 को मंज़ूरी दी गई. इस संशोधन में  भू-अर्जन के लिए सोशल इम्पैक्ट स्टडी कराने की बाध्यता समाप्त कर दी गयी. रघुवर सरकार ने  तर्क में गोवा, गुजरात, तमिलनाडु और तेलंगाना उदाहरण दिया. सोशल इम्पैक्ट स्टडी कराने की बाध्यता नहीं रहने से भू-अर्जन के लिए ग्राम सभा का दखल समाप्त हो गया. 

छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में माइनिंग और उद्योग लगाने के लिए आदिवासी ज़मीन के अधिग्रहण का अधिकार सरकार को पहले से उपलब्ध था. लेकिन इसमें अबतक ग्रामसभा की सहमति ज़रूरी होती थी. लेकिन सोशल इम्पैक्ट स्टडी कराने की बाध्यता नहीं रहने से रघुवर सरकार बिना ग्राम सभा की सहमति के आदिवासियों का भूमि अधिग्रहण कर सकती थी. आज भाजपा जो राग अलाप ले लेकिन उस भाजपा सरकार  उद्योगपतियों को नदियाँ बेचने पर आमादा थी. जिसके अक्स में आदिवासियों की ज़मीन लूट ही आखिरी सच के रूप में उभरता है..

भाजपा-संघ का रघुवर राज में खेला गया ज़मीन लूट का काला खेल स्पष्ट उदाहरण 

ज्ञात हो, पूरे राज्य में 1056137 एकड़ भूमि लैंड बैंक के नाम पर लिया था. उपायुक्तों को लक्ष्य दिया गया है कि वे अपने ज़िले में ज़्यादा से ज़्यादा वन भूमि, गैर-मजूरवा भूमि, गोचर भूमि, खेल के मैदान, भू-दान की ज़मीन, सैरात, सामुदायिक भूमि को अपने जि़ले के लैंड बैंक में शामिल करें. जिस पर वर्षों से राज्य के गरीब किसान अपनी खेती करते आये थे. यह उस 10.56 लाख एकड़ जमीन का 81.21 प्रतिशत था, जिसे मोंमेटम झारखंड के तहत लुटाया गया था. 

तोरपा अंचल के सर्वेक्षण में पाया गया कि उस भाजपा सरकार ने वहां की 7,885.26 एकड़ गैर मजरुआ आम व गैर मजरुआ खास जमीन लैंड बैंक में शामिल कर लिया था, जिसमें आम रास्ता, तालाब, चारागाह, कब्रगाह, नदी, पहाड़ आदि शामिल थे. इसके अतिरिक्त 4,523 एकड़ जंगल-झाड़ की जमीन को भी शामिल कर लिया गया था, जोकि असंवैधानिक था. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय इसके इजाजत नहीं देते हैं. जो वन अधिकार अधिनियम 2006 व पेसा अधिनियम 1996 का भी उल्लंघन भी था. टीएसी की भी सलाह नहीं ली गयी केवल कार्यकारी आदेश से यह सब हुआ था.

भाजपा के सांसद, विधायक व नेताओं को सरना कोड मामले में चुप्पी साधे रहना, उसके आदिवासी प्रेम की खोलती है पोल

आरएसएस का धर्मांतरण का शोर का रहस्य यही है. राज्य में ईसाई मिशनरियां 150 सालों से ज्यादा समय से है. शिक्षण संस्थान और चिकित्सा कार्यों में उनका योगदान भी रहा है. लेकिन 150 सालों में राज्य में ईसाई धर्मावलंबियों की संख्या लगभग 13,38,175 ही है. जबकि राज्य में हिंदूत्व से प्रभावित आदिवासियों की संख्या 32,45,656 है. झारखंड में इन दो धाराओं ने अदिवासियों के समक्ष बड़ी समस्या खड़ी कर दी है. वे इन दो धाराओं के बीच उनके अस्तित्व की लड़ाई को मुश्किल बना दिया है. जनगणना कॉलम में अलग धर्मकोड की मांग का आंदोलन का लम्बा चलना इसी का अक्स भर है. 

तमाम परिस्थितियों के बीच विचारणीय तथ्य है कि चर्च ने झारखंड में आदिवासियों के अलग धर्मकोड की मांग का समर्थन किया है. पर आरएसएस ऐसा करने की हिम्मत अबतक न दिखा पायी है. और केंद्र मोदी सरकार अब तक आदिवासियों के अस्तित्व की लड़ाई को अधर में लटका रखा है. ऐसे में झारखंड भाजपा के सांसद, विधायक व नेताओं को मामले में चुप्पी साधे रखना, उसके आदिवासी प्रेम की पोल खोलती है.

झारखंड के गांवों में गुप्त एजेंडा के तहत जानकारी दें! -मोहन भगवत   

ज्ञात हो, धनबाद में आरएसएस का तीन दिवसीय मंथन शिविर शुरू चल रहा है. आरएसएस के सर संघचालक मोहन भागवत भी शरीक हुए हैं. पहले दिन की बैठक में  कहा गया है कि आरएसएस को आदिवासी क्षेत्रों में मजबूत होने की जरूरत है. सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि मोहल्लों में शाखाओं का नियमित रूप से संचालन होना चाहिए. इसके अलावा हर गांव में एक प्रचारक और पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी होना चाहिए. गांवों में गुप्त एजेंडा की जानकारी भी देने को कहा गया है. हालांकि गुप्त एजेंडा क्या है अभी स्पष्ट नहीं हो सका है.

मसलन, झारखंड भाजपा को आदिवासियों समुदाय में पैठ बनाने में विफल होता देख आरएसएस ने एक बार फिर मोचा संभाल लिया है. संघचालक मोहन भागवत खुद मैदान में कूद पड़े हैं. और उन्होंने प्रचारकों को गाँव मुहल्लों में सक्रीय होने को कहा है. और गांवों में गुप्त एजेंडा के तहत प्रचार प्रसार करने को कहा है.

हालांकि, आरएसएस-भाजपा को धर्मांतरण पर सवाल उठाने का नैतिक हक नहीं, क्योंकि वह भी सक्रियता के साथ आदिवासियों के धर्मांतरण में लिप्त हैं. यह ढंकी छुपी बात नहीं. आरएसएस दशकों से वनवासी कल्याण केंद्रों और एकल विद्यालयों के जरिए आदिवासी समाज को हिंदूत्व की धारा में खींचने का प्रयास कर रहा है. झारखंड के बहुसंख्यक आदिवासी समाज द्वारा नकारने के बावजूद सरना-सनातन एक हैं जैसे रणनीति पर आरएसएस काम कर रही है. आदिवासी समाज के यह मानने के बावजूद कि हिंदू व अन्य धर्मों से पृथक उसका अपना अस्तित्व प्राकृत है. संस्कृति-पहचान अलग है. आरएसएस उसके सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़  करने पर अमादा है.

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