देश-दुनिया में सरकार से अपेक्षा होती है कि वह जनता के पोषण और जीवन को सुरक्षित करें. यह भारत सरकार पर भी लागू होता है. लेकिन मोदी सत्ता में जनता के स्वास्थ्य हितों को डस्टबिन में फेंक दिया गया है. जिसे प्रत्यक्ष रूप में कोरोना संक्रमण के दौर में देखा भी गया. ज्ञात हो, स्वास्थ्य की असमान स्थिति के मद्देनज़र 1978 में विकसित और विकासशील देशों के बीच कान्फ़्रेंस हुई थी. जिसमें 2000 ईस्वी तक जनता के लिए स्वास्थ्य उपलब्ध कराने का संकल्प लिया गया था. 1981 में, 34वीं विश्व स्वास्थ्य सभा में वैश्विक रणनीति बनाई गयी. भारत ने भी ज़ोर-शोर से लक्ष्य को पाने की तत्परता दिखाई. लेकिन मौजूदा हालात में यह लक्ष्य 100 वर्षों में भी पूरा होता नहीं दिखता.
मोदी सरकार इस लक्ष्य को पाने के लिए क्या क़दम उठा रही है
स्वास्थ्य सेवाओं का अर्थ केवल बीमारियों से बचाव ही नहीं बल्कि बीमारियों का इलाज भी है. और इलाज में दवाओं की ज़रूरत होती है. मौजूदा दौर में सरकार ये दवाएँ प्राइवेट दवा कम्पनियों से या फिर सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियों से खरीदती है.
1978 को राजस्थान में इण्डियन ड्रग्स एण्ड फ़ार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (IDPL), व राजस्थान राज्य औद्योगिक विकास और निवेश कॉरपोरेशन के संयुक्त तत्वावधान में “राजस्थान ड्रग्स एण्ड फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड” (RDPL) नामक एक सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी की स्थापना हुई. ताकि ग़रीब जनता को इलाज मिल सके. 2010 में RDPL को भारत सरकार का उपक्रम बना दिया गया. यह उपक्रम तमाम प्रकार की जीवन रक्षक दवाइयों से लेकर आँखों की दवाओं तक बनाता था. गुणवत्ता भी अच्छी होती थी. लेकिन केन्द्र सरकार दोनों उपक्रम IDPL और RDPL को बन्द करने का फ़ैसला लिया है. और RDPL के कर्मचारियों को इस बारे में पता ही नहीं था.
विकास के नाम पर देश की चार बड़ी फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियों को ख़त्म किया जा रहा है
मुद्दा सिर्फ़ 150 से ज़्यादा कर्मचारी कर्मचारियों का नहीं है लोगों के स्वास्थ्य का भी है. केन्द्र सरकार ने देश की पहली सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनी बंगाल कैमिकल्स एण्ड फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड व हिन्दुस्तान एण्टीबायोटिक्स लिमिटेड की अधिशेष भूमि को भी बेचने का प्रस्ताव रखा है. नीति आयोग भी सरकार की हिस्सेदारी को बेचने की सिफ़ारिश कर चुका है. पीछे का सरकारी तर्क है कि सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर राष्ट्रीय परिसम्पत्तियों को राष्ट्र के विकास में लगाया जा सकेगा. मसलन, विकास के नाम पर देश की चार बड़ी सरकारी फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियों को ख़त्म किया जा रहा है.
ज्ञात हो, राजस्थान ड्रग्स एण्ड फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड 2013 तक यह एक कमाई करने वाली कम्पनी थी. लेकिन 3 साल में ही यह घाटे की कम्पनी बन चुकी है. कम्पनी के कर्मचारी कहते हैं कि मेहनत की जाये तो कम्पनी को अभी भी सम्भाला जा सकता है. इस बाबत सरकार को कई बार प्रस्ताव भी भेजा गया है. लेकिन सरकार बन्द करने की ज़िद पर अड़ी है.
नफ़े में चल रही कम्पनी एकाएक घाटे में क्यों चली गयी?
सवाल है कि मुनाफ़े में चल रही कम्पनी एकाएक घाटे में क्यों चली गयी? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ख़ुद सरकार ने कम्पनी को ऑर्डर देने बन्द कर दिये. 1998 में फ़ैसला लिया गया था कि सरकारी अस्पतालों में दवाएँ सिर्फ़ सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों से खरीदी जायेंगी. RDPL को वरीयता दी गयी थी. हर साल 30 से 40 करोड़ रुपये के ऑर्डर इस यूनिट को मिलते आ रहे थे. 2011 में भाजपा की राजस्थान सरकार ने “राजस्थान मेडिकल सर्विस कारपोरेशन लिमिटेड” के नाम से एक नोडल एजेंसी बनायी और RDPL से दवाएँ ख़रीदना बन्द कर दिया. और प्राइवेट कम्पनियों से भी, दवाएँ ख़रीदने लगा. जिससे RDPL लगातार घाटे में आती चली गयी.
वह कम्पनी, जो किसी समय अपनी दवाओं की गुणवत्ता के लिए जानी जाती थी. अपने अतिरिक्त 9 एकड़ ज़मीन में कंपनी के विस्तार के सपने संजोए थी. उस कम्पनी के पास 2014-15 में महज 3 करोड़ का आर्डर रह गया. और पिछले साल से तो कम्पनी को ऑर्डर ही नहीं मिला है. कर्मचारी यूनियन, अनुसूचित जाति और जनजाति वेलफ़ेयर, कर्मचारी एसोसिएशन ने राज्य और केन्द्र सरकार से अनुरोध किया कि पुरानी नीति को लागू करें, लेकिन सरकारों को तो कंपनी बेचनी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कम्पनी को फ़ण्ड देने की घोषणा की थी लेकिन, एकाएक सरकार द्वारा कम्पनी बन्द करने का प्रस्ताव रखे जाने से सारी उम्मीदें ख़त्म होती दिख रही है.
फ़ार्मास्यूटिकल डिपार्टमेंट की 2015-16 की रिपोर्ट
केन्द्र सरकार की फ़ार्मास्युटिकल्स डिपार्टमेंट की 2015-16 की रिपोर्ट में बताया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में से IDPL, HAL और BCPL बहुत बुरी हालत में हैं और इनको पैकेज देने की ज़रूरत है. RDPL को पहली बार घाटे का सामना करना पड़ा है. कर्नाटक एण्टीबायोटिक्स एण्ड फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड ही एकमात्र मुनाफ़े वाला उपक्रम है. RDPL का विस्तार और आधुनिकीकरण करने की ज़रूरत है.यह कम्पनी प्रबन्ध की गुणवत्ता के लिए जानी जाती है. इसकी लेबोरेटरी भी सुसज्जित है. कम्पनी अच्छी गुणवत्ता की दवाइयाँ बनाने के मामले में नाम कमा चुकी है. यह सिर्फ़ राज्य सरकार को ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के भी अनेक संस्थानों को दवा सप्लाई करती रही है.
यह केन्द्र सरकार के प्रोग्राम “जनौषधि”, के तहत अच्छी क्वालिटी की जेनेरिक दवाएँ सस्ती दरों पर बनायी जानी हैं, में भी साझीदार है. जब भारत में स्वाइन फ़्लू फैला था तब RDPL ही वह कम्पनी थी जिसने समय पर स्वाइन फ़्लू की दवाएँ बनायी और बहुत कम क़ीमत पर सरकार को उपलब्ध करवायी थी. 1996 में जब सूरत में प्लेग फैला था तब भी इसी कम्पनी ने दवाएँ उपलब्ध करवायी थीं. लेकिन सरकार ने पहले तो इससे दवाएँ बनवाना बन्द कर दिया और अब घाटे का सौदा बता बन्द करने जा रही है. क्यों? क्योंकि इस जैसी कम्पनियों के चलने से प्राइवेट कम्पनियों का मुनाफ़ा कम हो जाता है. बिल्कुल यही हाल IDPL का भी है.
मसलन, यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि पूंजीपतियों का मुनाफा बढाने के लिए इन सार्वजानिक क्षेत्रों के कंपनियों को बंद किया जा रहा है. यह तमाशा जनकल्याण का स्वाँग भरते हुए किया जा रहा है.