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हेमंत सरकार में आधी आबादी से पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे को मिली है चुनौती

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पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे

हेमंत सरकार में आधी आबादी से पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे को मिली है चुनौती

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‘अमां यार, तुम तो रोने लगे औरतों की तरह।’ जिंदगी के रोजमर्रा की जुमले -‘मर्द बच्चे हो, टसुए बात-बात में क्यों बहाते हो?’ पुरुष प्रधान के सामाजिक ढांचे में ऐसी आम धारणा जहाँ रोना स्त्रियों का गुण माना जाता हो। संवेदनहीनता व मानवद्रोही संस्कृति की निर्मम अभिव्यक्ति लिए हो। जहाँ पिछली सत्ता स्त्री-पुरुष के कैनवास को ही ‘शासक-शासित फ्रेम’ की बुनियाद पर गढ़ दे। वहां हेमन्त सरकार की सखी मंडल, कोरोना त्रासदी में दीदी-किचन के मद्देनजर आगे बढ़ गरीबी का आंसू पोंछे। भूख जैसे त्रासदीय उभार को काँधे पर थाम ले। तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस न केवल झारखंड सम्मान बल्कि एक अलग लकीर का प्रस्तुतीकरण भी हो सकता है।      

दिल्ली स्टेकहोल्डर कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सीना चौड़ा कर महिलाओं के साहस को नया आयाम दे। शान से पहनी बंडी औद्योगिक जगत को दिखाए। और गर्व से कहे – इसे झारखंड की अभिमानी महिलाओं ने तैयार किया है। हो सकता है थोड़ी टेड़ी-मेडी हो, लेकिन इसमें उनके जी तोड़ मेहनत व स्वदेशी का खुशबू है। तो औद्योगिक जगत के समक्ष राष्ट्रभक्ति के मद्देनजर उसे तराशने भर की नैतिक जिम्मेदारी भरा सवाल तो उठा ही सकता है। जब झारखंड में महिलाएं त्रासदी दौर में सरकार के समझ से आगे काम कर दिखाए। तो किसी भी झारखंडी मानसिकता के मुख्यमंत्री की ऐसी ही जुबान हो सकती है। 

पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे को धत्ता बता आधी आबादी लामबन्द हो अपनी मुक्ति की ओर भर रहीं है सधे पग

मुख्यमंत्री के फूलों-झानों आशीर्वाद अभियान जैसे प्रयास। जिसके अक्स में हड़िया-दारू नहीं महिलाओं के स्वाभिमानी जीवन का सच हो। जहाँ सरकार कहे कि महिलाएं कपड़ा उद्योग का आधार बनेगी। और वह अपने ही रोजगार लक्ष्य 8000 से 12000 के तरफ बढ़े। जो प्रयास महिलाओं को मानव तस्करों से न केवल मुक्ति, रोजगार भी दे। राज्‍य भर में 10 जिले पलाश ब्रांड मार्ट में दो लाख महिलाओं के उसके उत्पाद के साथ जुड़ने का साक्षी बने। आर्थिक दृष्टिकोण से  उसके आत्मनिर्भरता के साक्षी बने। तो महिला सम्मान के मातहत मुख्यमंत्री का इठलाना जायज हो सकता है। 

मसलन, मुख्यमंत्री को यह पल विरासत में नहीं मिली है। बीज जो हेमंत सरकार ने एक वर्ष में बोए यह उस फसल का शुरुआत भर है। जब जड़ जमाये पुरुष-स्वामित्ववादी मानसिकता पर किसी मुख्यमंत्री का जबरदस्त प्रहार होता है। तो आम माहिला “दास स्वामियों जैसी” मानसिकता से संघर्ष कर आगे डग भर लेती है। आधी आबादी लामबन्द हो अपनी मुक्ति की ओर सधे पग रख ही लेती है। यह उसूलों की स्पष्ट समझदारी और एक मज़बूत सांगठनिक आधार पर मुख्यमंत्री की लिखी पटकथा है। जो स्त्री समुदाय की लामबन्दी और उनकी जीत जैसे महत्वपूर्ण सवाल का जवाब लिए है।

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