आखिर क्यों संघीय ढ़ांचे पर चोट पहुचाकर राज्यों पर अपनी नीति थोप रही है मोदी सरकार
Ranchi : मई 2014 से केंद्र की सत्ता में आसीन नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी एकतरफा नीतियों से देश की संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने का काम किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने हर भाषण में कमोवेश संघीय ढांचे में काम करने की बात करते है। लेकिन केंद्र की नीतियों को देख कोई भी कह सकता है कि राज्यों पर उनके निर्देश थोपा जा रहा है। ऐसे में लगता यही है कि मोदी सरकार में “सहकारी संघवाद” शब्द केवल भाषणों में ही सीमित रह गया है. दरअसल आज संघीय ढांचे पर केंद्रीयकृत व्यवस्था भारी पड़ रही है।
मोदी सरकार के हर निर्णय संघीय ढांचे पर कुठाराघात
मोदी सरकार की इस नीतियों के लिए कई तर्क भी दिये जा रहे है। गैर बीजेपी शासित तमाम राज्यों के साथ झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी केंद्र की इस नीति पर सवाल उठाये है। कोरोना काल में कानून व्यवस्था या स्वास्थ्य का मामला हो, कोल ब्लॉक नीलामी, जीएसटी के बकाये राशि की मांग हो या नयी शिक्षा नीति का। सभी में कमोवेश मोदी सरकार की नीतियों संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने वाली ही रही है.
राज्यों के ऊपर अपनी राय थोपने के लिए केंद्र ने लागू किया आपदा अधिनियम-2005
संघीय ढांचे पर चोट की शुरूआत तो कोविद-19 के खिलाफ लड़ाई के लिए लगे 21 दिनों के राष्ट्रीय लॉकडाउन में ही देखा गया। यह लॉकडाउन आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत लागू किया गया। इसके तहत प्रशासनिक कार्यों के संदर्भ में राज्यों पर केंद्र सरकार को बहुत अधिक शक्ति प्रदान किया गया। केंद्र के इस फैसले पर सवाल उठे। विपक्षी पार्टियों ने कहा कि लॉकडाउन 1.0 को क्रियान्वित करने से पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को विश्वास में लिया जाना चाहिए था। मुख्यमंत्रियों की शिकायत रही कि हमसे तो पूछा ही नहीं गया। इनका कहना था कि महामारी से जुड़े कई दूसरे एक्ट भी हमारे पास थे, उनके तहत भी हम अच्छा काम कर सकते थे। केंद्र ने उनका इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि उन्हें राज्यों के ऊपर अपनी राय थोपने का अवसर नहीं मिलता। दरअसल, केंद्र सरकार ‘सहकारी संघवाद’ के ढांचे के विपरित चलने का प्रयास कर रही है।
संघीय ढांचे पर चोट के साथ सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन था कोल ब्लॉक नीलामी प्रक्रिया
केंद्र द्वारा प्रस्तावित कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया शुरू होते ही राज्य सरकारें केंद्र पर हमलावर हो गयी। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि मोदी सरकार का फैसला ‘सहकारी संघवाद के खिलाफ’ है। हेमंत के मुताबिक खनिज संसाधनों पर राज्य का भी हक है। लेकिन इनके नीलामी से पहले भी केंद्र ने राज्यों से कोई राय नहीं ली। संविधान विशेषज्ञों की मानें, तो कोल ब्लॉक नीलामी प्रक्रिया संघीय ढांचे पर चोट के साथ ही 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश की मूल भावना के विपरीत है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने कोलगेट घोटाले के बाद कोयला खनन पर पाबंदी लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि खनन केवल देश-हित में निर्धारित अंत-उद्देश्य के लिए ही किया जाएगा. दूसरे शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने कमर्शियल माइनिंग पर रोक लगा दी थी। कोर्ट ने अपने निर्णय में साफ किया था कि कोल ब्लॉक आवंटन की मुख्य जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होगी. लेकिन केंद्र ने अपनी तानाशाही नीतियों के तहत 2015 में लाए खदान (विशेष उपबंध) अधिनियम और बाद में मार्च 2020 में किये गए नियमों के बदलावों में कमर्शियल माइनिंग का रास्ता बनाया. यानी केंद्र की नीति पूरी तरह से संघीय ढांचे की मूल भावना के विपरीत है।
कंपनसेशन देने की जगह करोड़ों रुपये कर्ज लेने की सलाह भी संघीय ढांचे पर चोट
पिछले दिनों हेमंत सरकार राज्य के जीएसटी के बकाये 2500 करोड़ रूपये की मांग पर अड़ी है. सरकार का मानना है कि यह पैसा राज्य का है। जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 के जीएसटी कंपनसेशन की राशि देने से मना कर दिया है। केंद्रीय वित्त मंत्री ने कर्ज देने की जगह करोड़ों रुपये कर्ज लेने का विकल्प बताया। यह कार्रवाई संघीय ढांचे के विरुद्ध है और इससे राज्यों को जीएसटी में भारी घाटा उठाना पड़ेगा। इसका असर केंद्र और राज्य के बीच में चले आ रहे संबंधों पर भी पड़ेगा।
समवर्ती सूची की विषय है शिक्षा, फिर भी नहीं ली गयी राज्यों से सलाह
सहकारी संघवाद पर बड़ा हमला नई शिक्षा नीति से होने की बात हेमंत सोरेन ने की है। सीएम का कहना है कि एकतरफ़ा निर्णय लेकर केंद्र ने यह नीति लायी है। लेकिन झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में इस नीति का क्या प्रभाव पड़ेगा,इसके लिए राज्यों से सलाह मशविरा नहीं ली गयी। हेमंत ने कहा कि समवर्ती सूची के विषय होने के बाद भी राज्यों से बात नहीं करना सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) की भावना को चोट पहुंचाता है।