24 जून, गुपकर गठबन्धन में शामिल कश्मीर की पार्टियों से मोदी सरकार की वार्ता के मायने 

70 और 35ए हटाये जाने के बाद कश्मीर में भारत सरकार के प्रति आक्रोश, अविश्वास और ग़ुस्सा बढ़ा है. ऐसे माहौल में पूँजी निवेश नहीं हो सकता. गुपकर गठबन्धन में शामिल कश्मीर की पार्टियों के साथ संवाद स्थापित करना मोदी सरकार की ज़रूरत. साथ ही राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय समीकरण भी कारण हैं

दिल्ली 24 जून, बिना एजेण्डा निर्धारित किये मोदी सरकार ने गुपकर गठबन्धन में शामिल कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों को वार्ता के लिए आमंत्रित किया था. 5 अगस्त 2019, अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने जाने और जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करने के बाद भारत सरकार की ओर से बातचीत का यह पहला प्रयास था. ज्ञात हो, मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया पर भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता अर्धपागलों की तरह कश्मीर में प्लॉट ख़रीदने जैसे मानसिकता का कुरूप प्रदर्शन कर रहे थे. 

लेकिन इस निर्णय से मोदी सरकार को उम्मीद के अनुरूप फायदा नज़र नहीं आ रहीं. उल्टे उसके झूठे वायदों की पोल खुलती जा रही है. कश्मीर को लेकर भारत सरकार न तो आतंकवाद कम होने का दावा कर सकती है. और न ही अन्य राज्य की तरह सुगम पहुँच वाला ही बता सकती है. यहाँ सेना की उपस्थिति पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है, घाटी में तनाव और अस्थिरता जस की तस बनी हुई है. मोदी के विकास के वायदों के ढोल के चीथड़े सभी जगह मौजूद हैं. मोदी ने कहा था कि नौजवानों को रोज़गार मिलेगा और घाटी में विकास होगा. लेकिन सच वादों से कोसों दूर है.

24 जून की बैठक में कश्मीर में चुनाव कराये जाने पर चर्चा

दिल्ली में 24 जून को हुई बैठक में कश्मीर में चुनाव कराये जाने पर चर्चा हुई. इस वार्ता के पीछे कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय समीकरण आपस में गुथे हैं. मुनाफ़े की गिरती दर के संकट को कोविड महामारी ने और गहराया है. इस स्थिति में पूँजीवादी तंत्र अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में लाने का यह प्रयास भर है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना के हटने से वहां तालिबान की वापसी लगभाग तय मानी जा रही है. भारत से बेहद क़रीब होने की वजह से अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक मौसम का प्रभाव भारत पर भी पड़ेगा. 

लश्कर-ए-तयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों का सम्बन्ध तालिबान के साथ है. इनके आतंकवादियों के शिक्षण-प्रशिक्षण, हथियार प्रदान करने व फ़ण्डिंग में तालिबान का भी योगदान रहता है. ऐसे में सम्भावनाओं को देखते हुए भारत सरकार पर दबाव है. और मौजूदा परिस्थितियों में चीन भी बचना चाहता है और सीमा सम्बन्धी किसी मुद्दे को तूल नहीं देना चाहता. 

कुल-मिलाकर भारत सरकार पर दबाव है कि वह कश्मीर की परिस्थितियों में तनाव को कम करे. साथ ही आन्तरिक परिस्थितियाँ भी कश्मीर में तनाव-शैथिल्य के लिए दबाव बना रही हैं. इसी परिदृश्य में हम तालिबान के साथ भारत की गुप्त वार्ता को भी देख सकते हैं. कहा ऐसा भी जा रहा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने भारत पर तालिबान से वार्ता के लिए दबाव बनाया है. भारत सरकार की गुपकर गठबन्धन से हुई वार्ता को भी यदि हम इस परिप्रेक्ष्य में रख कर देखें तो चीज़ें बेहतर स्पष्ट होंगी.

आक्रोश, अविश्वास और ग़ुस्सा के माहौल में पूँजी निवेश से पूंजीपतियों को फायदा नहीं हो सकता  

अनुच्छेद 370 और 35ए को कश्मीर से हटाये जाने के बाद मोदी सरकार ने जिस क़दर कश्मीर में प्रतिरोध का दमन किया, उससे कश्मीर में भारत सरकार के प्रति आक्रोश, अविश्वास और ग़ुस्सा बढ़ा है. ऐसे माहौल में यदि पूँजी निवेश होता भी है तो सफलता हासिल नहीं होगी. पूँजी निवेश के लिए क़ानून व्यवस्था का होना न्यूनतम आवश्यकता होती है. और यह सेना की उपस्थिति में सम्भव नहीं है. मसलन, कश्मीर के साथ संवाद स्थापित करना मोदी सरकार की ज़रूरत है. 

मसलन, गुपकर गठबन्धन में शामिल कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों के साथ आरम्भ किये गये इस संवाद में भारत सरकार का पक्ष है कि वह पहले ‘डीलिमिटेशन’ की प्रक्रिया पूरी करेगी. यानी लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण, इसके बाद चुनाव और तब राज्य का दर्जा. वहीं गुपकर गठबन्धन का कहना है कि पहले राज्य का दर्जा दिया जाये, कुछ कश्मीर की पुरानी स्थिति यानी अनुच्छेद 370 और 35ए बहाल किये जाने की बात कर रहे हैं और तब चुनाव कराये जायें. वार्ता का परिणाम क्या होगा? बस इतना ही कहा जा सकता है कि भारत सरकार एक क़दम पीछे हटेगी या फिर संघ के हार्डलाइनरों के दबाव में यथास्थिति बनाये रखने पर अड़ी रहेगी. यह वक़्त बतायेगा.

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