झारखण्ड: मईया सम्मान योजना आधी आबादी के लिए कुपोषण से जीत और सामाजिक न्याय की अंतिम आस है. ऐसे में विपक्ष का PIL का प्रयास आधी आबादी से षड्यंत्र नहीं तो और क्या?
रांची : झारखण्ड चुनाव -एक तरफ चुनाव आयोग पर समान बेटल फील्ड मुहैया न कराने का सवाल है. दूसरी तरफ प्रोटोकॉल अपडेट के आसरे सोशल मीडिया ने इंडिया गठबंधन के मुद्दों की रीच को कम कर दी है और सांप्रदायिक धुर्विकरण को बढ़ावा दे रहा है. जांच एजेंसिया भी मैदान में है. तमाम एकतरफा परस्थितियों के बीच सीएम हेमन्त सोरेन का ट्वीट -आज तानाशाहों के मंईयां सम्मान बंद करवाने के केस पर सुनवाई होगी. आपकी अबुआ सरकार और झारखंडी हार नहीं मानेंगे. स्पष्ट करता है कि कौन सी राजनीति झारखण्ड के साथ है कौन सी झारखण्ड के विरुद्ध.
झारखण्ड में विपक्ष के बाहरी नेताओं के जवाब में राज्य की आधी आबादी ने मोर्चा सम्भाला है. नतीजतन, इन्हें परिणाम तो भुगतना ही था. विपक्ष पर आरोप है कि वह बाहरियों और उसके लालच को झारखंडी विभीषणों के पीछे खड़ा कर PIL के माध्यम से मईया सम्मान योजना को बंद करने की सुनियोजित सजिश है. झारखण्ड की आधि आबादी कुपोषण, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक न्याय की लड़ाई पिछले 19 वर्षों से लड़ रही है. ऐसे में इस कुकृत्य को हेमन्त सरकार में आधी आबादी को प्राप्त अधिकार पर सुनियोजित संगठित हमला माना जा सकता है.
क्या गैर झारखंडियों का लालच शांति समझौते के बजाय लूट का देता है साथ?
इस सच से इनकार नहीं कि झारखण्ड के शहरी क्षेत्र में में भारी संख्या में बाहरियों का प्रवेश है. राजनिति से लेकर लगभग हर आर्थिक क्षेत्र में उसकी भागीदारी भी है. और यह सब विपक्ष के बाहरी समर्थित नीतियों से ही संभव हुआ है. कुछ बाहरियों की मानसिकता झारखंड के मुद्दों-सवालों से मेल जरुर खाती है लेकिन अधिकाँश की मानसिकता लूट-लालच से प्रेरित प्रतीत हुआ है. 1985 नियोजन निति में इनकी सहमती और भागीदारी तथ्य को सत्यापित करता दिखा है. उसे बाहरी मानसिकता को दो-दो राज्यों में सरकारी योजनाओं-नीतियों का लाभ लेने से एतराज नहीं है.
बाहरी आबादी झारखंडी राजनीति का पक्ष लेता कभी नहीं दिखा. उसे लगता है जब वह खुद ही विपक्ष के साथ सरकार में शामिल हो सकता है तो उसे शांति- समझौते की क्या आवश्यकता! यदि ऐसा नहीं तो वह बाहरी आबादी एसटी ज़मीनों के सेटेलमेंट में कोर्ट में खड़ी दिखती है लेकिन, झारखंडी राजनितिक दलों के साथ मिलकर ‘A’ की जगह ‘B’ ग्रेड की नीतियों पर शान्ति समझौता करता क्यों नहीं दिखता? यदि बाहरी आबादी मानवता के आधार पर हेमन्त सरकार से बात करती तो क्या उनके बच्चों की शिक्षा-स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा-न्याय जैसे आयामों पर नीतियाँ नहीं लाई जा सकती थी? और राज्य में संतुलन नहीं बनाया जा सकता था?
लेकिन, प्रतीत होता है कि बाहरी आबादी की लालच को लगता है कि विपक्ष के गुजरात लॉबी की मानसिकता से हाथ मिला वह जब इस राज्य में सत्ता सुख ले सकते हैं तो उन्हें झारखंडी राजनीतिक दलों से समझौते की क्या आवश्यकता है? लेकिन, विश्लेषात्मक दृष्टि डालने पर पता चलता है कि गुजरात लॉबी मानसिकता इस बाहरी लालच के आसरे केवल झारखण्ड का ही नहीं उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल तक का भविष्य को बर्बाद कर रहा है. जबकि उसके पास शांति-समझौते का अभी भी वक़्त है. वह विषय पर गंभीरता से सोच पूरे उत्तर प्रदेश से बंगाल तक क्षेत्र के विकास को प्रभावित कर सकता है और संभावनाए भी बढ़ा सकता है.