चार काले लेबर कोड लागू करने की हड़बड़ी में मोदी सरकार

चार लेबर कोड लागू करने की हड़बड़ी और यूनियनों के गाल बजाने के बीच इन काले क़ानूनों के विरुद्ध मज़दूरों खुद लम्बी लड़ाई लड़ने के तैयार रहना होगा 

हासिये के छोर पर खड़ी मज़दूर वर्ग त्रासदी के चरम के तरफ बढ़ चली है। पूंजीपति मित्रों के सहूलियत के लिहाज से पारित, मोदी सत्ता के चार ख़तरनाक क़ानून, आनन-फ़ानन में लागू किये जाने के कावाद से समझा जा सकता है। जो पूँजीपति को मनमाने तौर मजदूर दोहन सच उभार सकती है। जहाँ अधिकार रक्षा के मद्देनज़र श्रमिक संगठित भी न हो पाये इसकी भी व्यवस्था हो। ट्रेड यूनियन और मज़दूर संगठन की आपत्ति को केन्द्र यह कहते हुए दरकिनार कर दे कि वह श्रम “सुधारों” को तेज़ करने जा रही है। तो यहीं से सवाल शुरू होता है कि क्या औद्योगिक मज़दूरों की विशाल आबादी उसी तरह सड़कों उतर सकती है, जैसे किसान?

तो क्या मौजूदा दौर में यह मान लिया जाना चाहिए कि ट्रेड यूनियन और मज़दूर संगठन ने मज़दूरों को उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के आगे निहत्ता फेंक दिया है। और विरोध के रस्म के नाम पर अन्दर-बाहर (कूट) गत्ते की तलवारें भांजना, मज़दूरों के ग़ुस्से को थमने का सच भर है। जब एक-एक करके मज़दूरों के तमाम अधिकार छिनने का सच सामने हो। चार ख़तरनाक क़ानून पारित करा लिए जाए और यूनियन केवल खेंखें-टेंटें करते हुए गाल बजाते रहे। तो आखिरी सच यही उभार सकता है। 

चार लेबर कोड क्या हैं और मज़दूरों के लिए ख़तरनाक क्यों हैं?

मौजूद श्रम क़ानून लचीले व निष्प्रभावी जरुर हो सकते हैं, जिसका फ़ायदा मज़दूर कम, मालिकों के ज्यादा उठाने का भी सच बेसक लिए हुए हो। लेकिन मजदूर संघर्ष के अक्स में क़ानून पूँजीपतियों सिरदर्द ज़रुर पैदा कर सकता था। लेकिन, “कारोबार की आसानी” के नाम पर पूँजीपतियों को श्रम-शक्ति लूट को कानूनी अमलीजामा पहनाना। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों उप्कर्मों को कौड़ियों में पूँजीपतियों के लूटाना। मोदी सत्ता का 60 करोड़ मजदूरों को हासिये पर धकेलने का सच ही उभार सकता है।

ज्ञात हो,  44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार कोड या संहिताएँ बना दी गयी हैं। 

  1. मज़दूरी पर श्रम संहिता 
  2. औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता 
  3. सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता 
  4. औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता 

मोदी सत्ता श्रम क़ानूनों को सरलीकरण करने का दे सकती है। लेकिन, देशी-विदेशी पूँजी के लिए सस्ती श्रम मनमानी शर्तों पर दोहन का सच लिए है। मोदी सत्ता पार्ट 1 में श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय श्रम क़ानूनों का मौजूदा स्वरूप विकास में बाधाक मान चुके हैं। जहाँ बेहतर मज़दूरी, सुरक्षित नौकरी, बच्चों को अच्छी शिक्षा, विकास का पैमाना नहीं माना जाता। विकास के लिए ज़रूरी है कि कॉर्पोरेट मित्र अपनी शर्तों पर कारोबार शुरू करे, बन्द करे, लोगों को काम पर रखे, निकाले, मनचाही मज़दूरी दे। मज़दूरों अपने अधिकार के लिए एकजुट न हो।

मज़दूरी पर कोड – बेहिसाब मुनाफ़ा निचोड़ने की छूट देने वाला क़ानून

चार पुराने क़ानूनों – वेतन भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 के खात्मे के लिए मज़दूरी पर कोड लागू होगा। इसके अन्तर्गत देश भर में वेतन का न्यूनतम तल-स्तर निर्धारित होगा। लेकिन सवाल है कि जहाँ श्रम मंत्री पहले ही नियोक्ताओं के प्रति प्रतिदिन के लिए तल-स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये की घोषणा करे। और वह सरकार की विशेषज्ञ समिति द्वारा सुझाया राशि 9,750 रुपये से 11,622 रुपये की न्यूनतम मासिक आमदनी से कम हो, तो क्या कहेंगे। 

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता – क्या सरकार को मज़दूरों की जान की कोई परवाह नहीं

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता’ जहाँ असंगठित मज़दूरों की जगह नहीं। केवल 10 से ज़्यादा मज़दूरों को काम पर रखने वाले कारख़ानों पर ही यह लागू हो सकता है। जो मज़दूरों की बड़ी आबादी को  क़ानून के दायरे से बाहर रखेगी। नाम के उलट, कोड में मज़दूरों के  सुरक्षा के साथ खिलवाड़ का सच लिए है। सुरक्षा समिति बनाना  सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है। जो अधिनियम, 1948 के हिसाब से अनिवार्य था। जहाँ मज़दूर अधिकतम कितने रासायनिक और विषैले माहौल में काम कर सकते हैं, स्पष्ट नहीं है। 

मित्रों के पक्ष क्या कोई सरकार इस हद तक उतर सकती है। जहाँ अगर कोई ठेकेदार, मज़दूरों के लिए तय किये गये काम के घण्टे, वेतन और अन्य ज़रूरी सुविधाओं की शर्तें नहीं पूरी कर पाता, तो भी उस ठेकेदार को ‘कार्य-विशिष्ट’ लाइसेंस दिया जा सकता है।

सामाजिक सुरक्षा संहिता – सुरक्षा मालिकों को, असुरक्षाएँ मज़दूरों के नाम

कॉर्पोरेट सेक्टर क 90 प्रतिशत हिसा सामाजिक सुरक्षा के मद्देनज़र, जहाँ मजदूरों को ईएसआई, पीएफ़, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन आदि सुविधाओं से वंचित रखा जाता हो। वहां त्रिपक्षीय वार्ताओं के मद्देनजर मज़दूर प्रतिनिधियों की भूमिका को ही ख़त्म कर दिया जाना पोल खोल सकती है। साथ ही लच्छेदार के अक्स में कोड में कामगार स्त्रियों की बड़ी आबादी को मातृत्व लाभों से वंचित कर दिया गया है। प्रसूति के ठीक पहले और बाद में स्त्रियों से काम कराने पर रोक लगायी गयी है। लेकिन उन्हें यह लाभ 12 महीनों में 80 दिनों तक किसी प्रतिष्ठान में काम कर चुकी होगी” तभी वह मातृत्व लाभ पाने की हक़दार हो सकती है। मज़दूर स्त्रियाँ तो दायरे से बाहर हो गयी।

औद्योगिक सम्बन्ध संहिता – मज़दूरों के बचे-खुचे ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमला

सरकार तीन पुराने श्रम क़ानूनों – औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947,  ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक रोज़गार अधिनियम 1946 को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सम्बन्ध श्रम संहिता लेकर आयी है। जहाँ मोदी जी साफ़ कहना हो कि औद्योगिक विवाद सही शब्द नहीं है क्योंकि पूँजीपति मज़दूरों के अभिभावक के समान हैं! तो साफ़ हो जाता है कि क्यों कारख़ानों में 300 तक मज़दूर की छँटनी के लिए सरकार की इजाज़त लेना ज़रूरी नहीं। कम्पनियों को मज़दूरों को किसी भी अवधि के लिए ठेके पर नियुक्त करने का अधिकार मिल गया है। मैनेजमेंट को 60 दिन का नोटिस दिये बिना मज़दूर हड़ताल पर नहीं जा सकते।

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