गुरूजी -शिबू सोरेन एक न मरने वाली विचार -जन नेता से पहले एक समाज सुधारक

इतिहास सिखाता है कि कोई भी व्यवस्था सनातन नहीं होती। हर शोषित समाज बदलता है और उसे इंसान ही बदलते हैं। इसके जीते जागते उदाहरण हैं हमारे दिशोम गुरु शिबू सोरेन ( गुरूजी )। इन्हीं के आन्दोलन के दम से हम आज अलग झारखंड में सांस ल रहे हैं। यह झारखंड के उन तमाम पाराशिक्षक जैसे आन्दोलनकारियों समझना चाहिए।

बेहतर विचारों, बेहतर आदर्शों को खुद में आत्मसात कर इन्हें झारखंड के एक-एक इंसान तक पहुँचाने की मुहिम में जुट जाना चाहिए। झारखंडी जनता को भी हर झारखंडी आन्दोलन को अपना आन्दोलन समझते हुए अपने भाई-बेटे-बेटियों का साथ देना चाहिए। जब मन भारी होने लगे तो अपने आदर्श गुरूजी के आन्दोलन के तरीकों का अध्ययन कर फिर से खड़ा हो अपने लक्ष की और अग्रसर होना चाहिए।

आईये एक झारखंड-पुत्र की कहानी सुनते हैं  और उस स्थित में जीते हैं- अमावस की रात 11 जनवरी, 1944 लोकतंत्र में जीनेवालों के बीच राजतंत्र की काली रात, कहने को तो लोग आज ही के भाँति स्वतंत्र भारत के नागरिक थे लेकिन बिहार झारखंड का पिछड़ा क्षेत्र गोला में सोना और सोबरन के कोख से विकासशील झारखंड के जनक शिवचरण ने जन्म लिया। जो कालक्रम से जन-जन के  लिए शिबू सोरेन हो गए। बसंत पंचमी के दिन उनके शिक्षक पिता ने नहला-धुला माथे तिलक लगा और हाथ में दुधी माटी का ढेला पकड़ा कर बोर्ड पर ‘क’ लिखवा शिक्षा-दीक्षा शुरू की।

रात के न जाने कितने पहर लुकैया टांड वाले खेत की मेड पर बुद्ध की भाँति समाधि में बिता दिए

उन दिनों पूरे गोला क्षेत्र में सेठ-साहूकारों का राज था और ऋण लेन-देन प्रक्रिया में सुद वसूली के रूप में खेत, ज़मीन, धान एवं पैसा का लगान चरम पर था। सोबरन मांझी, गुरूजी के पिता इस महाजनी प्रथा के खिलाफ आम जन को जागरूक करना प्रारम्भ कर दिए थे। इस वजह से सेठ-साहूकारों ने उन्हें अपना दुश्मन के रूप में चिन्हित कर लिया। उस समय रामगढ राजा के छत्रछाँह में यह जमींदार काफी मनमानी करते थे, करते भी क्यों न उनके लिए खून तक माफ़ था।

शिबू सोरेन (गुरूजी)
शिबू सोरेन (गुरूजी) -एक विचार

सोबरन के ज़मीन पर बार बरलंगा के साहूकारों का कब्ज़ा था जिसको छुड़ाने के लिए वे प्रयासरत थे। 27 नवम्बर, 1957, पूरा क्षेत्र धान कटनी में व्यस्त था, सोबरन भी लुकैयाटांड टोला स्थित अपने खेत में धान काटने पहुंचे। अबकी बार मन बना लिए थे कि धान को बेचकर साहूकार से अपनी ज़मीन छुड़ा लेंगे। लेकिन बरलंगा के साहूकार ने औरंगाबाद से पहलवान बुलाकर रात के अँधेरे में उनकी हत्या कर गुरूजी को अनाथ कर दिया।

इसी के साथ भारी गरीबी ने गुरूजी दरवाजे पर दस्तक दे दिया था। इधर गुरूजी की मानसिक स्थिति काफी विक्षुब्द थी। वे कितने रात के न जाने कितने पहर लुकैया टांड वाले खेत की मेड पर बुद्ध की भाँति समाधि में बिता दिए। एक दिन गुरूजी ने अपने माँ से कहा “तुम मेरे सब कुछ हो, मै अपने पिता का प्रतिशोध लूँगा और पूरे समाज को साहूकारों के महाजनी प्रथा से मुक्त कराऊंगा। जो उन्होंने वादा किया था उसे हमें अलग-झारखंड दिलाकर निभाया। अब तो वीर शिबू जन नेता नहीं बल्कि एक न मरने वाली विचार हैं। अब आगे लड़ाई लड़ने की बारी हमारी … (शेष कहानी अगली लेख में )

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