बाबूलाल जी के बदले सुर के सियासी मायने

अगर बाबूलाल मरांडी झारखंड चुनाव के वक़्त तक भाजपा घरानों के प्यादे होने के इलज़ाम को नकारते रहे। अगर बाबूलाल मरांडी चुनाव के वक़्त अपने विधायक को जिताने के जोर आज़माइश करते दिखे। अगर बाबूलाल मरांडी अपने विधायक को पार्टी विरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के संदेह मात्र पर तत्काल निष्कासित दे। अगर बाबूलाल मरांडी अपने विधायक दल के नेता को महज 48 घंटे में निष्कासित करने को तत्पर दिखे। अगर बाबूलाल मरांडी झारखंड सरकार को दिए अपने समर्थन बिना ठोस कारण के झटके में वापिस ले ले तो, उनके किसी बड़े ताकत के प्रभाव में होने के संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। 

खबरों की माने तो वह भाजपा और झाविमो के बीच कहीं झूलते नजर आते हैं। अगर एक अनुभवी नेता के सरोकार अपने परिवार तक से न बचे। अगर परिवार के सदस्य ही कहने लगे कि विधायक दल का नेता मै हूँ, और कायदे से उनमें नोटिस भेजने की बैचेन दिखे। अगर पार्टी के भीतर अपनी डोलती सत्ता को लेकर कार्यकर्ता अपनी बैचेनी सड़कों पर दिखाने को मजबूर हो जाए। अगर पार्टी के सपनों की वैचारिकी के साथ मुखिया के डिगने की स्थिति में अहम निर्णयों पर रस्साकसी होने लगे। बावजूद इसके वह एक झारखंडी नेता होने के मुखौटा न उतारे और अपनी पसंद के मुखौटे को अपने पास रखकर हर चेहरे से मुखौटा उतारना शुरु कर दे,  तो फिर झाविमो का चेहरा शेष बचाता कहाँ है।

फिर भी वह कहे कि झाविमो वाकई बचा है तो जनता के जहन में यह सवाल ज़रूर आयेगा ही कि जब उन्होंने जनता में उम्मीद जगायी, जिसके निसाने पर सत्ता के वह मुखौटे थे जो जनता की न्यूनतम ज़रुरत के साथ फरेब कर रहे थे। उस दौर के बीजेपी के भ्रष्टाचार को कठघरे में रख बिना लाग लपेट तलवार हर तरफ से चलाये। तो क्या उनक वैचारिक तौर पर राज्य की राजनीति को रोशनी दिखाना केवल सत्ता तक पहुंचने के सियासी  साधन थे। 

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