शेख भिखारी व उमराँव सिंह जैसे गुमनाम शहीदों की कुर्बानी जाया नहीं जाएगी : शिबू

पूर्व मुख्यमंत्री व झारखंड आन्दोलन के सेनापति दिशोम गुरु शिबू सोरेन जब शहीद शेख भिखारी व टिकैत उमराँव सिंह का 163वां शहादत दिवस पर सम्मान देते हुए कहते हैं कि झारखंड के इन शहीदों की कुर्बानी बेकार नहीं जायेगी। तो झारखंड के वर्त्तमान सरकार से उम्मीद जगता है कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्योछावर करने वाले इन गुमनाम शहीदों को राष्टीय पटल पर सम्मान व पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत है। जब कहते हैं कि इनके शहीद स्थलों को विकसित किया जायेगा और इनके परिवारों के सम्मान को सरकार कभी ठेस नहीं पहुंचाएगी। तो झारखंडी जनता को यह भी लगता है कि झारखंड के इन गुमनाम शहीदों के स्वर्णिम इतिहास को मुकाम मिलेगा और धुल फांकती इनके शहीद स्थल व रोटी के मोहताज इनके परिवारों के सवाल को जवाब भी।

झारखंड में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष की शुरुआत अगस्त माह 1857 के पहले सप्ताह में हज़ारीबाग़ के निकटवर्ती क्षेत्रों में हुआ, ऐसा माना जाता है। इस आन्दोलन में रामगढ़ छावनी व अन्य सेनाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उस वक़्त इस आन्दोलन का मुख्य केंद्र राँची, चुटूपालू का घाटी, चतरा, पलामू, चाईबासा थे। इसमें जमादारों से ज्यादा आम नागरिकों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जिसमे शेख भिखारी, टिकैत उमराँव सिंह, नीलाम्बर-पीताम्बर के नाम उल्लेखनीय है। साथ ही ठाकुर विश्नाथ शाहदेव व पाण्डेय गनपत राय की “मुक्तिवाहनी” सेना भी शामिल है।

अब तक राँची व हज़ारीबाग़ के संघर्षों की आंच चारों ओर फैल चुकी थी। चाईबासा स्थित रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने 3 सितम्बर 1857 को ख़बर मिलते ही विद्रोह कर दिया। इन्होंने सरकारी ख़ज़ाना लूटी और कैदियों को मुक्त कर दिया। साथ ही राँची के बागियों से मिलने के लिए राँची की ओर कुच किया, लेकिन खराब मौसम ने इन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया। इन्हें पोडाहार के राजा अर्जुन सिंह ने आश्रय दिया। बाद में ये इनसे प्रभावित हो प्रत्यक्ष रूप से इस आन्दोलन में शामिल हो गए और दक्षिण कोल्हान में विद्रोह की आग सुलगाया। स्थानीय जनजातियों ने भी इन्हें काफी सहयोग दिया।        

4 अक्टूबर, 1857 जयमंगल पाण्डे को अंग्रेजों द्वारा फांसी दे दी गयी। शेख भिखारी भाग कर चुटूपालू घाटी पहुँच चुके थे। जनवरी 1858 में शेख भिखारी के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ मुकाबला हुआ, 6 जनवरी को उनके साथ साथ टिकैत उमराँव सिंह को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और 8 जनवरी 1858 को फाँसी दे दी। बाद में इनके इस आन्दोलन के अलख को नीलाम्बर-पीताम्बर, दोनों भाइयों ने शहीद होने तक बखूबी आगे बढ़ाया। दोनों भाइयों फाँसी दिए जाने के बाद ही भारत की यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेज शिथिल कर सके।

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