आजसू चुनावी कप से लगभग बाहर नजर आ रहा है। दोष किसका है, सुदेश जी का नहीं विपक्ष का है। सेमीफाइनल में विपक्ष ने अपनी फिल्डिंग और गेंदबाज़ी के दम पर आजसू को हरा दिया, गलती किसकी थी? यक़ीनन हम एक ऐसे दौर में आ चुके हैं जहां अपने क्षेत्र के नाकाबिल कप्तान हार के बावजूद खुद को दोषी मानते नहीं। आजसू कप्तान सुदेश महतो ने शुरुआती दौर से ही रघुवर सरकार के पूरे खेल पर चुप्पी साध, खेलने दिया और अंत में विपक्ष को दोषी करार दे अपनी नीतियों पर पर्दा डाल लिया। मान तो उसने यह भी लिया कि जो खेल उसने खेला इससे बेहतर खेल झारखंडी अस्मिता के लिए हो नहीं सकती। यकीनन यह स्वाभिमान नहीं अंहकार का चरम है।
राज्य के स्वाभिमान से जुड़ा स्थानीय नीति परिभाषित होते वक़्त चुप रहना ऐसे दोहरे रणनीति के खिलाड़ी के लिए किस स्वाभिमान का परिचायक है। सत्ता द्वारा बाहरिओं को लाभ पहुँचाते हुए जब सदियों बसने वाले कुरमी समुदाय समेत तमाम झारखंडी बिरादरी को सिरे से ख़ारिज कर दिया जाता है, सीएनटी/एसपीटी पर हमले के आसरे जल, जंगल, ज़मीन की लूट की पटकथा लिखी जाती है, सात्ता उनके भाई-बहनों के अधिकार मांगने के एवज में पीठ पर लाठियाँ बरसाती है, स्वाभिमान से ही जुड़ा राज्य के डिग्रीधारियों की डीग्री सत्ता सिरे से ख़ारिज करने की बात कहती है और सुदेश जी का स्वाबिमान न टूटने वाली चुप्पी साधे रहती है, तो निस्संदेह जनता का उनके स्वाभिमान पर प्रश्न खड़ा करना जायज़ करार दिया जान चाहिए।
सत्ता लगातार खुद के पास लेकिन आरोप स्वाभिमान बेचा विपक्ष ने
मसलन, सिल्ली में खुद का स्वाभिमान न बचा पाने वाले सुदेश का गिरिडीह के स्वाभिमान बचायेंगे कहना, और रामगढ़ चुनाव जीतने के लिए गिरिडीह को छोड़े देंगे, कहने वाले आजसू के गिरिडीह सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी मानते तो है कि यह लोकसभा झारखंड आंदोलन का गढ़ व जन्म देने वाला रहा है। जब देश के 117 पिछड़े लोकसभा क्षेत्रों में गिरिडीह भी शामिल हो, तो दोष अपने साथी दल व खुद पर डालते हुए विपक्ष पर डालना किस स्वाभिमान का परिचायक हो सकता है?