ग्रामीण तो ग्रामीण, शहरी भी खुले आम कहने से नहीं चुक रहे कि हेमंत सोरेन उनके लिए बेहतर विकल्प
जब झारखंड जैसे राज्य की सियासत में किसान-किसान की आवाज़ सुनायी देती है, तो यकीनन यह सवाल जनता के ज़हन में कौंधती है कि यह सत्ता परिवर्तन से सत्ता बचाने के लिए राज्य में गाया जाने वाला राग भर है। जब सत्ता चुनावी दौर में विकास की गाथा व मंदी-महँगाई से उबारने के बजाय अधिनियम 370, 35A, राम मंदिर जैसे राग सुनायी देती है, तो जनता का दिमागी दायरा परखने को विवश हो जाता है -क्यों ?
एक तरफ जब सत्ता खुले तौर पर दावा करती है, राज्य के जर्रे-जर्रे से नक्सल का सफ़ाया हो चुका है और दूसरी तरफ निर्वाचन आयोग उसी नक्सल समस्या का हवाला देते हुए कहे कि राज्य का 67 विधानसभा व 19 जिले नक्सल प्रभावित है और नक्सल समस्या के आसरे चुनाव को पाँच चरणों में करवाये तो जनता के ज़हन में यह सवाल तो ज़रुर होता है कि आखिर सच क्या है?
रिपोर्ट कहने लगे कि राज्य के जनता को मयस्सर आबोहवा में संसाधन लूट ने ज़हर घोल दिया है, जिसने उनके औसतन उम्र को साढ़े चार-पाँच बरस घटा दिया है। लेकिन सत्ता राग अलापे कि प्रदूषण नियंत्रण के हर संभव उपाय हो रहे हैं। तो आम बजट के दायरे का हवाला देकर कोई भी अर्थ शास्त्री बहस कर सकता है कि सत्ता का आधार क्या है? कैसे होगा ये जनता में सवाल हो सकता है।
ऐसा भी नहीं हो कि सरकार की समझ अब किसानी छोड़ टेकनालाजी पर जा टिकी हो। क्योंकि सच तो ये है कि टॉप इंटरनेट-मोबाइल कंपनियाँ बंद होने के कगार पर है, तो जनता चाहे जिस जाति वर्ग समुदाय का हो सत्ता को लेकर सोच बदल ही लेती है। जिसका आभास आज राज्य के हर मीडिया हो रहा है, जहाँ ग्रामीण तो ग्रामीण शहरी जनता भी खुले आम कहने से नहीं चुक रही है कि वे बेहतर विकल्प रूप में हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं।