फासीवादी व्यवस्था में बेरोज़गारी एक सामान्य परिघटना, झारखंड इसका जीता जागता उदाहरण
फासीवादी व्यवस्था में बेरोज़गारी एक सामान्य परिघटना होती है, क्योंकि उनकी पूरी चुनावी व्यवस्था पूँजीपतियों के रहमोकरम पर ही निर्भर करता है। फासीवादियों के शासन में उनके चहेते पूँजीपति वर्ग को बेरोज़गार आबादी की ज़रूरत होती है। यदि सभी को रोज़गार मिल जायेगा तो पूंजीपति वर्ग किस चीज़ का हौवा दिखा कर कम मजदूरी दर पर लोगों को काम पर रखेगी और उनसे अपने मनमुआफ़िक काम करवा पाएगी? यह नैसर्गिक गति धीरे-धीरे बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी खड़ा करती है, जो एक प्रकार से मुनाफ़े इनके लिए का साधन बन जाता हैं। इसलिए फासीवादी व्यवस्था अपने आकाओं के खफ़ा हो जाने के डर से कभी बेरोज़गारी ख़त्म ही नहीं करना चाहती। क्योंकि इन्हें सत्ता कायम रखने के लिए भी ख़रीद-फरोख्त से लेकर तमाम तरह के हथकंडे अपनाने के लिए धन भी वाही आका मुहैया कराते है।
यह व्यवस्था अपने इस मंशा को छुपाने के लिए विभिन्न प्रकार के पैंतरे अपनाती है। जैसे – जनता को ये देश की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का हवाले देकर अंधेरे में रखती है। जबकि यदि यह सच होता तो बढ़ती अर्थव्यवस्था के बीच रोज़गार बढ़ने के जगह बेरोज़गारी क्यों बढ़ती दिखती है? साथ ही ठीक इसके उलट पहले से जो स्थायी रोज़गार होते हैं वह भी तेज़ी से कम होती जाती है। यह युद्ध उन्माद से लेकर साम्प्रदायिकता तक का माहौल उत्पन्न करते हैं। ये अपने अनुषंगी दलों की मदद से फेक एजेंडे तैयार कर देश के संस्थाओं को उसमें झोक देते हैं ताकि जनता को पूरा प्रकरण सच लगे। अंततः यह व्यवस्था देश हो या राज्य बेरोजगारों की फ़ौज पैदा करने सफल हो जाते हैं।
मसलन, “रोज़गारविहीन विकास” से न देश का और न ही देश के करोड़ों नौजवानों को कोई लाभ सकता है, जबतक जनता समझ पाती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। फासीवादी व्यवस्था में बेरोज़गारी का सबसे भयावह उदाहरण झारखण्ड जैसे राज्य में देखी जा सकती है जहाँ पिछले दो महीनों में 30 से ज़्यादा युवाओं को तंग आ कर अपनी ज़िंदगी समाप्त करनी पड़ती है, आत्महत्या करनी पड़ती है। जबकि खुद को डबल इंजन की सरकार कहने वाली सत्ता इस गंभीर मुद्दे से जनता के ध्यान हटाने के लिए पारा-शिक्षक, अबला आँगनबाड़ी बहनें व कृषि मित्रों पर लाठियाँ तक चलवाती है।